तितरम मोड़ क्या है?

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सम्भव(SAMBHAV - Social Action for Mobilisation & Betterment of Human through Audio-Visuals) सामाजिक एवं सांस्कृतिक सरोकारों को समर्पित मंच है. हमारा विश्वास है कि जन-सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर जन-भागीदारी सुनिश्चित करके समाज को आगे ले जाना मुमकिन है.

सोमवार, दिसंबर 20, 2010

‘सम्भव’ का अभियान-पत्र


सम्भव
SAMBHAV
Social Action for Mobilisation & Betterment of Human through Audio-Visuals


सम्भव का अभियान-पत्र
एक नयी दुनिया सम्भव है

ब्रेकफास्ट फार गर्ल्स एजुकेशन यानि लड़कियों की शिक्षा के लिए नाश्ता यह नाम कुछ अजीब सा लग सकता है. भला नाश्ते का  लड़कियों की पढ़ाई से क्या वास्ता. उन्हें भरपेट और पौष्टिक खाना मिल जाए, नाश्ता तो दूर की बात है.  लेकिन लड़कियों के लिए नाश्ता और शिक्षा दोनों ही आज महत्वपूर्ण मुद्दें हैं. इनके प्रति सरोकार और हरियाणा में लड़कियों और महिलाओं की शर्मसार होती स्थिति में बदलाव लाने ले लिए बिना किसी सरकारी अथवा गैर सरकारी आर्थिक मदद के काम करने वाली सामाजिक संस्था संभव द्वारा यह अभियान चलाया जा रहा है. इस साप्ताहिक अभियान के तहत नाश्ते की बिक्री से हुई बचत को लड़कियों की पढ़ाई पर खर्च किया जा रहा है. यह अभियान कैथल जिले के तितरम गांव से आरम्भ हुआ है जिसका लक्ष्य जिले, प्रदेश और पूरे समाज में बदतर होती लड़कियों की स्थिति के प्रति लोगों को झकझोरना, उनकी सोई संवेदना को फिर से जगाना है. यह अभियान एक बड़े उद्देश्य का हिस्सा है.
      संभव का उद्देश्य संवेदनशील मुद्दों पर ऑडियो-विजुअल एवं अन्य माध्यमों की सहायता से समाज के विभिन्न समुदायों से जुड़ना और अपने अभियान में उन्हें साझीदार बनाना है.
संभव हरियाणा में लगातार कम होती लड़कियों की संख्या, अशिक्षा, घरेलू हिंसा, उनके जनतांत्रिक अधिकारों को कुचलने जैसे अन्य गंभीर मुद्दों पर समाज में चर्चा-परिचर्चा बहसों और विभिन्न सांस्कृतिक माध्यमों से एक बदलाव लाने के लिए वचनबद्ध है.
संभव सूचना का अधिकार, उपभोक्ता सरंक्षण अधिकार और शिक्षा के अधिकार को वास्तविकता बनाने के लिए संकल्पबद्ध है क्योंकि कानूनी साक्षरता के बिना समाज को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता. 
हरियाणा भयंकर भूजल संकट से गुजर रहा है जो निकट भविष्य में और गंभीर रूप लेने वाला है. दूसरी ओर धरती अपने प्रति छेड़छाड़ का गुस्सा बाढ़ और सूखे के रूप में व्यक्त कर रही है.  ऐसे में अपनी धरती को बचाने के प्रयत्न में साझीदार बनाना और पूरे समुदाय को उसमें जोड़ना भी संभव का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है.
आज जब चांद पर मानव को बसाने की बात चल रही है तब भी हम घोर अंधविश्वासी विचारों और मान्यताओं को ढो रहें हैं.  इंसान-इंसान के प्रति, एक समुदाय दूसरे समुदाय के प्रति, एक धर्म दूसरे धर्म के प्रति उदारता को खोता जा रहा है. क्या इन सब के बने रहते समाज आगे बढ़ सकता है?  संभव उदारता और तर्क पर आधारित समतामूलक और एक खुशहाल समाज बनाने के प्रति वचनबद्ध है.
हम घर-परिवार और मित्रों के लिए अपनी जिम्मेवारी के प्रति तो सजग रहतें हैं लेकिन उस समाज के प्रति अपना कोई ऋण नहीं समझते जिसके बिना हम चंद महीनों से ज्यादा जीवित नहीं रह सकते. यह चूक क्यों? यह संवेदनहीनता क्यों?? यह गैर सरोकार क्यों??? समाज बदलाव में हर व्यक्ति की भूमिका होती है.  समाज में बदलाव आपकी भागीदारी और साझेदारी के बिना अधूरा है. बदलावों को अंजाम देने के लिए हमें दूर जाने की जरूरत नहीं.  अपने घर, परिवार, अपने बच्चों, अपने पड़ोस और अपने समुदाय से हम यह शुरुआत कर सकते हैं.  आईये, एक बेहतर इंसान बनने, एक बेहतर इंसान बनाने, एक बेहतर समुदाय और समाज बनाने के लिए मिलकर साझा प्रयास करें.
      वर्ष को सम्भव ने ग्राम पुस्तकालय एवं सशक्तिकरण वर्ष के तौर पर मनाने का का निर्णय किया है.  इस कार्यक्रम के तहत अधिकतम गाँवों में पुस्तकालय एवं सशक्तिकरण केन्द्र खोलने की योजना है. क्योंकि सम्भव इस जिम्मेवारी को जन-सहयोग, जन-सरोकार से ही पूरा करने के लिए कृतसंकल्प है. जो साथी इस अभियान में शामिल होना चाहते हैं सम्भव टीम से संपर्क कर सकतें हैं.
                                         संपर्क
                           प्रेमचंद पुस्तकालय, ग्राम-सशक्तिकरण केंद्र,
                           तितरम, जिला कैथल (हरियाणा)
                           9813272061, 9896085488, 9416203045

रविवार, दिसंबर 12, 2010

पुस्तक प्रदर्शनी

 


  

http://119.82.71.95/haribhumi/Details.aspx?id=22899&boxid=30181510

18 लड़कियों की शिक्षा का जिम्मा

Dec 12, 06:48 pm
कैथल, जागरण संवाद केंद्र :
गरीबी के कारण बहुत सी लड़किया अपनी पढ़ाई को अधूरी छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं। ऐसे में संभव संस्था के कार्यकर्ताओं ने लड़कियों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। 5 दिसंबर से संस्था के सदस्यों द्वारा इस अभियान की शुरूआत की गई थी। रविवार को राष्ट्रीय संभव संस्था व ग्राम सशक्तिकरण केंद्र तितरम द्वारा चला जा रहे ब्रेकफास्ट फार ग‌र्ल्ज एजूकेशन के द्वितीय अभियान के तहत सेक्टर हुडा 19 में नाश्ते व लंच का आयोजन किया। कार्यक्रम में पुस्तक प्रदर्शनी भी लगाई गई। छोटे-छोटे बच्चों द्वारा पेंटिंग बनाई गई। हुडा वासियों के साथ-साथ शहर के अन्य लोगों ने नाश्ता व लंच किया। संस्था के डायरेक्टर एवं ग्रामीण बैंक हरसौला ब्राच के प्रबंधक कुमार मुकेश ने बताया कि इस कार्यक्रम के तहत जो पैसा एकत्रित होगा वह गरीब एवं जरूरतमंद बच्चों की शिक्षा पर खर्च किया जाएगा। संस्था ने तितरम गाव की 18 लड़कियों को बारहवीं के बाद पढ़ाई कराने का निर्णय लिया है। लोगों इस अभियान में नवोदय विद्यालय की प्राध्यापिका गुरप्रीत कौर, डा. आशु वर्मा, रामफल मलिक, ओमप्रकाश कुण्डू, सत्यवान, सुभाष, हर्ष, मनीष, संजीव कुमार, अनिल मलिक संस्था से जुड़कर इस अभियान को सफल बनाने में लगे हुए है। कार्यक्रम में जिला बार एसोसिएशन के अध्यक्ष पीएल भारद्वाज ने बताया कि संस्था के कार्यकर्ताओं ने गरीब व जरूरतमंद लड़कियों को शिक्षित करने का जो बीड़ा उठाया वह बहुत ही सराहनीय है। समाज के लोगों को संस्था से सीख लेकर गरीब वर्ग की लड़कियों की मद्द के लिए आगे आना चाहिए। ताकि वे भी अपने सपने को पूरा कर सकें। पीएल भारद्वाज, सतीश बंसल, नरेंद्र आदि ने संस्था के कार्यकर्ताओं द्वारा तैयार किया गया भोजन खाया। संस्था कार्यकर्ताओं ने जो अनूठी पहल शुरू की है उससे समाज में जागरूकता आएगी।

पेंटिंग प्रतियोगिता में बच्चें ने दिखाई अपनी कला

कैथल& राष्ट्रीय संस्था संभव द्वारा पेंटिग एवं स्लोगन प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। प्रतियोगिता में लगभग 46 बच्चों ने भाग लिया तथा पेंटिंग में भिन्न-भिन्न रंग उकेरे। इस अवसर पर संस्था द्वारा पुस्तक प्रदर्शनी का आयोजन भी किया गया। डा. आशु वर्मा व गुरप्रीत कौर ने कार्यक्रम का संचालन किया। इस अवसर पर जिला बार एसोसिएशन के अध्यक्ष पीएल भारद्वाज ने संस्था द्वारा समय-समय पर करवाए जा रहे रचनात्मक कार्यों की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि संस्था ने जिलेभर की लडकियों को शिक्षित करने का जो बीडा उठाया है वह प्रशंसनीय कदम है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार के कार्यक्रमों में भाग लेने से बच्चों को अंदर छीपी प्रतिभा को बाहर निकलने का मौका मिलता है। इस अवसर पर निर्मल सिंह, अनिल मलिक, वीपी बेनीवाल, संजीव कुमार, केंद्र संयोजक रामफल, ओमप्रकाश, सत्यवान, सुभाष भी उपस्थित थे।

शुक्रवार, दिसंबर 10, 2010

तितरम की सरपंच दौड़ी सबसे तेज

पाई, संवाद सहयोगी : क्षेत्र के तितरम गांव के राजकीय स्कूल में आयोजित दो दिवसीय खंडस्तरीय ग्रामीण खेलकूद प्रतियोगिता शुक्रवार को संपन्न हो गई। खंड विकास एवं पंचायत अधिकारी शकर लाल गोयल ने विजेताओं को पुरस्कृत किया। महिला प्रतिनिधियों की दौड़ में तितरम की सरपंच सबसे अव्वल रही।
प्रतियोगिता में पुरुष वर्ग की सर्कल कबड्डी में चंदाना की टीम प्रथम तथा तितरम द्वितीय रही। वालीबॉल के पुरुष मुकाबलों में मूंदड़ी ने प्रथम और खुराना ने द्वितीय स्थान प्राप्त किया, जबकि इसी खेल के महिला वर्ग में बरोट की टीम ने प्रथम और तितरम की टीम ने द्वितीय स्थान प्राप्त किया। पुरुषों की सौ मीटर दौड़ में रवि प्रथम और मुकेश बरोट द्वितीय रहे। उसी वर्ग की महिला दौड़ में एक ¨पकी प्रथम और दूसरी ¨पकी द्वितीय रहीं। ये दोनों खिलाड़ी गाव मानस की हैं। पुरुषों की चार सौ मीटर दौड़ में रवि प्रथम और मुकेश बरोट द्वितीय रहे। महिलाओं की चार सौ मीटर दौड़ में पूनम मानस प्रथम और ममता मानस दूसरे स्थान पर रही। केवल पुरुष वर्ग की 1500 दौड़ में जो¨गद्र खुराना ने प्रथम और मनीष सारन ने द्वितीय स्थान प्राप्त किया। पुरुष और महिलाओं की पांच हजार मीटर दौड़ में देवेंद्र देबन प्रथम, जो¨गद्र खुराना द्वितीय और रीतू मानस प्रथम, सुनीता मानस द्वितीय रही। पुरुष लंबी कूद में राजू शर्मा कुलतारण प्रथम और रवि तितरम द्वितीय रहे। इसी खेल के महिला वर्ग में शशी मानस पट्टी प्रथम और ¨पकी दूसरे स्थान पर रही। पुरुषों की ऊंची कूद में नील कुमार बलवंती प्रथम और विक्रम मानस द्वितीय रहे। महिला ऊंची कूद में अंजू मानस ने प्रथम व सुदेश मानस ने द्वितीय स्थान प्राप्त किया। गोलाफेंक के पुरुष वर्ग में सुशील तितरम प्रथम, राकेश द्वितीय रहे। उसी खेल के महिला वर्ग में गुरजीत मानस ने प्रथम और रीना मानस ने द्वितीय स्थान प्राप्त किया। कुश्ती के मुकाबलों के 58 किग्रा वर्ग के पुरुष वर्ग में अमन पट्टी अफगान प्रथम और पवन शेरगढ़ द्वितीय रहे। महिलाओं के उसी वर्ग में मीना क्योड़क ने प्रथम और गीता मानस ने द्वितीय स्थान प्राप्त किया। कुश्ती 67 किग्रा पुरुष भार वर्ग में संजय क्योड़क प्रथम, सुरेद्र पाड़ला द्वितीय रहे। इतने ही महिला भार वर्ग में शशी मानस ने प्रथम और पूजा मानस ने दूसरा स्थान अर्जित किया। ओपन कुश्ती के पुरुष वर्ग में बाबा लदाना के वकील उर्फ नरेश प्रथम तो बाबा लदाना के ही ब¨लद्र द्वितीय रहे, जबकि ओपन महिला कुश्ती में बतेरी मानस ने प्रथम और सोनिया मानस ने द्वितीय स्थान हासिल किया। आज के खेल में पंचों, सरपंचों व पंचायत समिति सदस्यों की दौड़ मुख्य आकर्षण रही। महिला प्रतिनिधियों की दौड़ में तितरम की सरपंच गीता देवी प्रथम और इसी गाव की पंच सरोज देवी ने दूसरा स्थान प्राप्त करके अपने परचम फहराया। पुरुषों की दौड़ में गाव हरसौला से पंच नरेश प्रथम व गाव चंदाना से पवन पंच द्वितीय रहे। रस्साकसी में तितरम की टीम ने प्रथम और हरसौला की टीम ने द्वितीय स्थान हासिल कर अपने गावों को विजयश्री दिलाई। इस अवसर पर बलदेव कुंडू, महेद्र खन्ना, सरपंच सुरेद्र, बीरबल कैलरम, सुरजीत हरसौला, साधु राम प्यौदा, ओमप्रकाश, सुनील कुमार, अनुज, तेजभान आदि ने भी संबोधित किया।


अब नाश्ता कराकर लड़कियों को शिक्षित करेगी संस्था

 यूं तो लोग हर रोज नाश्ता करते हैं, लेकिन रविवार को कैथल के सैकड़ों लोगों ने एक अनूठा नाश्ता किया। अनूठापन नाश्ते के मैन्यू में नहीं था, बल्कि इसके पीछे छिपे लक्ष्य में था।
लोगों द्वारा खाई गई एक-एक कचौरी गांव की लड़कियों का भविष्य संवारने में काम आएगी। इस नाश्ते से ग्रामीण छात्राओं की उच्च शिक्षा संभव होगी। सेक्टर 19 में यह अनूठा नाश्ता राष्ट्रीय समाज सेवी संस्था संभव द्वारा चलाए जा रहे ग्राम सशक्तिकरण केंद्र तितरम द्वारा आयोजित किया गया था। न कोई सरकारी ग्रांट, न किसी से भीख बल्कि नाश्ते से प्रेम बांटते हुए संस्था की यह अनूठी पहल रही।
पहले दिन कमाए सात हजार रुपये :
ब्रेकफॉस्ट फॉर गर्ल्स एजूकेशन नामक इस अभियान के तहत पहले दिन कैथल के सेक्टर 19 स्थित मार्केट में संस्था के सदस्यों ने स्वयं नाश्ता तैयार किया। इसमें छोले-कचौरी, खीर एवं कॉफी बनाई गई। इन तीनों की कीमत हुडा वासियों के अनुसार रखी गई। उनका आह्वान किया गया कि लड़कियों की शिक्षा के लिए यहां नाश्ता करें। पहले दिन के अभियान से सात हजार रुपये की आय हुई। इसमें लागत भी शामिल है।
उच्च शिक्षा दिलवाई जाएगी :
संभव संस्था की ओर से आए कुमार मुकेश ने बताया कि गांव तितरम में 18 लड़कियों ने बारहवीं के बाद संसाधनों के अभाव में शिक्षा छोड़ दी। जिस पर संस्था ने परिजनों से कोई आर्थिक सहायता न लेते हुए उन्हें स्नातक एवं स्नातकोत्तर तक उच्च शिक्षा मुहैया करवाए जाने का फैसला लिया।
इसके लिए उन्होंने सरकार एवं चंदे के लिए हाथ पसारने की बजाए कुछ करके फंड के प्रबंध का फैसला लिया, क्योंकि इसके लिए भी काफी मेहनत करनी पड़ती है। जिस कारण यह माध्यम अपनाया गया है। इस राशि से इन लड़कियों के पुस्तकें, फार्म, फीस, स्टेशनरी एवं शिक्षकों तक का भी प्रबंध किया जाएगा। सप्ताह में एक बार इस कार्यक्रम का आयोजन होगा।
अभूतपूर्वसहयोग मिला
केंद्र से जुड़े गांव वासी अध्यापक रामफल, किसान सत्यवान, गुरप्रीत कौर अध्यापक, होटल में कुक का काम करने वाले दीपक, अध्यापक ओमप्रकाश, गांव में ही बिजली का काम करने वाले सुभाष, अध्यापक सोनिया, अध्यापक आशू वर्मा, विद्यार्थी निक्कल, जेबीटी अध्यापक कांता कुंडू, बैंक कर्मचारी विजय, अध्यापक अनिल मलिक, अध्यापक पवन कुमार ने बताया कि इस अभियान में लोगों का उम्मीद से अधिक सहयोग मिला है। विशेष रूप से स्कूल एवं कॉलेज की लड़कियों ने उत्साह के साथ भाग लेते हुए नाश्ता किया। इन बच्चों ने इसे अपना कार्यक्रम समझ कर इसमें योगदान दिया।
-नसीब सैनी अमर उजाला 

रविवार, नवंबर 28, 2010

बेटियों की शिक्षा के लिए छोले-कचोरी और खीर बेचकर जुटाया धन

Source: अमरजीत सिंह मधोक   |   Last Updated 04:17(29/11/10)
 
 
 
 
 
 

कैथल. वैसे तो बहुत सारे मां बाप किसी न किसी तरह अपनी बेटियों की शिक्षा के लिए धन जुटाते हैं लेकिन एक संस्था के छोले-कचौरी, कॉफी और खीर बेचकर ग्रामीण लड़कियों के लिए धन जुटाने की बात पढ़कर आपको थोड़ा अटपटा लग सकता है। ‘सम्भव’ नामक एक एनजीओ ने रविवार को शहर के पॉश इलाके सेक्टर 19 के पार्क में सुबह लोगों को ब्रेकफास्ट करवा कर सात हजार रुपए जुटाए।

इस राशि का प्रयोग ऐसी ग्रामीण लड़कियों की हायर एजुकेशन को जारी करवाने पर खर्च किया जाएगा जो आर्थिक कारणों से पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर हुई। संस्था के सदस्यों में शामिल नवोदय विद्यालय के शिक्षकों और कई अन्य विभागीय कर्मियों ने स्वयं यहां नाश्ता बनाया और सस्ते दाम पर लोगों को खिलाया। लोगों ने भी इसमें उत्साह से भाग लिया।

एनजीओ के निदेशक कुमार मुकेश और सचिव गुरप्रीत कौर ने बताया कि गांव तितरम में 18 ऐसी लड़कियों को चिन्हित किया गया है जो प्लस टू के बाद पढ़ाई जारी करने में समर्थ नहीं थी। इन सभी को केयू से बीए प्रथम वर्ष में दाखिला दिलाकर गांव में ही उनकी पढ़ाई की व्यवस्था की गई है। प्रेमचंद पुस्तकालय में संस्था के सदस्य पढ़ाई भी करवाते हैं। उन्होंने कहा कि सम्भव एनजीओ की ओर से गांव तितरम में स्थापित ग्राम सशक्तिकरण केंद्र ने ऐसी लड़कियों में शिक्षा के प्रति जागरुकता पैदा करने के उद्देश्य से यह पहल की है।

हर सप्ताह आयोजित होंगे कार्यक्रम

संस्था के निदेशक कुमार कहा कि आज से इस कार्यक्रम की शुरुआत की गई है जो भविष्य में हर सप्ताह कहीं न कहीं आयोजित किया जाएगा और गांवों में भी ऐसी लड़कियों को आगे पढ़ने को प्रोत्साहित किया जाएगा। लड़की की पढ़ाई को बोझ मानने वाले पेरेंट्स में जागरुकता आएगी। बिना कन्या की पढ़ाई के शिक्षा के सामाजिक परिवर्तन को नहीं लाया जा सकता। शिक्षा ही सामाजिक परिवर्तन की पहली सीढ़ी है।नाश्ते के व्यंजनों के साथ पुस्तक और पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई गई। इस अवसर पर रामफल, ओमप्रकाश, सोनिया,आशु वर्मा, कान्ता कुंडु आदि मौजूद रहे।



 

शुक्रवार, नवंबर 26, 2010

ब्रेकफास्ट फॉर गर्ल्स एजुकेशन

'ब्रेकफास्ट फॉर गर्ल्स एजुकेशन' यह नाम है तितरम गांव में 'संभव' संस्था द्वारा स्थापित 'ग्राम सशक्तीकरण केंद्र' द्वारा शुरू किये जा रहे अभियान का. इस अभियान का उद्देश्य उन लड़कियों की पढाई का खर्च एकत्र करना है जिनकी पढाई आर्थिक अथवा अन्य कारणों से बीच में ही छूट गई.  इस अभियान के तहत लड़कियों की पढाई का खर्च दान अथवा अनुदान पर आश्रित न होकर सामूहिक प्रयास से एकत्रित किये जाने का फैसला किया गया.

इसके तहत दिनांक 28-11-2010 को केंद्र द्वारा कैथल के सेक्टर 19 व 20 में नाश्ते का स्टाल लगाया जाएगा एवं साथ ही एक पुस्तक प्रदर्शनी लगाई जायेगी और उससे एकत्रित राशि को लड़कियों की पढाई पर खर्च किया जायेगा. उल्लेखनीय है कि एक सर्वेक्षण के पश्चात ग्राम तितरम की उन लड़कियों को चिन्हित किया गया जो बारहवीं के पश्चात किन्ही कारणों से उच्च शिक्षा के लिए नहीं जा सकी.  इन लड़कियों के लिए केंद्र द्वारा स्थापित पुस्तकालय में कक्षाएं लगाना, अध्यापकों और पठन सामग्री की व्यवस्था करना इस कार्यक्रम का मुख्या हिस्सा है.

प्रत्येक रविवार एवं अन्य किसी विशिष्ट दिवस पर ब्रेकफास्ट अभियान या अन्य कार्यक्रमों द्वारा न केवल लड़कियों की शिक्षा का व्यय निकालना बल्कि उनकी शिक्षा के महत्व और ज़रूरत को रेखांकित करना है.  साथ ही इस अभियान के तहत बुद्धिजीवियों और आम नागरिकों से संवाद स्थापित करना और इस तथ्य से अवगत कराना कि देश के न्यूनतम कन्या दर एवं न्यूनतम कन्या शिक्षा वाले जिलों में शामिल कैथल में कन्या शिक्षा की अलख जगाए बिना सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन का लक्ष्य हासिल करना नामुमकिन है.  शिक्षा में कमी का एक बड़ा कारण लड़कियों के प्रति पिछड़े एवं मध्यकालीन मूल्य हैं.  इन मूल्यों को बिना बदले कन्या शिक्षा की दर को भी नहीं बढ़ाया जा सकता.  इस अभियान में इन दोनों उद्देश्यों को पूरा करने का प्रयास किया जाएगा.


इसी कार्यक्रम के तहत गत दिवस गांव की ही संगीत मंडली द्वारा गांव में एक संगीत संध्या का आयोजन किया गया. समस्त गांव ने इसमें बढ़ चढ कर हिस्सा लिया.  कार्यक्रम का संयोजन रामफल मालिक और डा. आशु वर्मा ने किया.  केन्द्र ने इस कार्यक्रम से एकत्र राशि को भी लड़कियों की शिक्षा पर व्यय करने का निर्णय किया.

सोमवार, अक्तूबर 11, 2010

अम्बाला के किसान भी करेंगे आंदोलन

 अम्बाला शहर के साथ लगते गांवों की 1800 एकड़ जमीन पर मॉडल इंडस्ट्रियल टाउनशिप बनाने की सरकारी योजना के खिलाफ अम्बाला शहर के साथ लगते करीब आधा दर्जन गावों के किसान अब आंदोलन पर उतारू हो गए हैं।  पंजोखरा, मंडौर, खतौली, काकरू, जनेतपुर, गरनाला के सैकड़ों किसानों ने जमीन बचाओ संघर्ष समिति के तत्वावधान में उपायुक्त दफ्तर के सामने धरना दिया और आईएमटी के लिए जमीन अधिग्रहण किए जाने को लेकर नारेबाजी की। किसानों का कहना था कि वह किसी भी कीमत पर अपनी जमीन का अधिग्रहण नहीं होने देंगे और जरूरत पड़ी तो इसके लिए राज्यव्यापी आंदोलन भी छेड़ा जाएगा।
किसानों ने सिटी मजिस्ट्रेट को अपनी मांगों का एक ज्ञापन भी दिया, जिसमें कहा गया कि उनकी उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण किया जाना, उन्हें एक तरह से गांवों से बेदखल करना है। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यह घोषणा कर चुके हैं कि उपजाऊ जमीन का किसी अन्य काम के लिए अधिग्रहण नहीं किया जाना चाहिए, इसके बावजूद प्रशासन उनकी जमीन का जबरन अधिग्रहण करने की तैयारी में है। उन्होंने कहा कि यदि सरकार ने धक्के से उनकी जमीन लेनी चाहिए तो पश्चिम बंगाल के सिंगूर की तरह आंदोलन छेड़ा जाएगा।
उल्लेखनीय है कि उधर हिसार के निकट गांव गोरखपुर के किसान भी न्यूक्लीयर प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण करने के विरोध में आंदोलनरत हैं.
किसानों ने  प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी , राहुल गांधी व केन्द्रीय मंत्री कुमारी सैलजा के अलावा मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को भी ज्ञापन  भेजें  है। उन्होंने कहा कि यदि राज्य सरकार ने उनकी मांग न मानी तो किसानों का प्रतिनिधित्व मंडल दिल्ली में जाकर सोनिया गांधी व राहुल गांधी से मिलेगा।

रविवार, अक्तूबर 10, 2010

गाँव गया था गाँव से भागा

गाँव गया था
गाँव से भागा
रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आँगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आँख में बाल देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हकीम देखकर
गिरवी राम रहीम देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
नए धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएँ-कुएँ में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
नए नए हथियार देखकर
लहू-लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै जैकार देखकर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का शृंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा जुनून देखकर
गंजे को नाखून देखकर
उजबक अफलातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।
-कैलाश गौतम 

दलित तज रहे हीनता सूचक नाम


रैली
भारत का दलित समुदाय लंबे समय तक हीन नामों की पालकी ढोता रहा था
उत्तर भारत के दलित समाज में बच्चों के नामकरण में बड़ा परिवर्तन आया है. दलितों ने अपने अधिकारों के प्रति चेतना के साथ हीनता सूचक नामों को तिलांजलि दे दी है.
अब वे अपने बच्चों का नामकरण ख़ुद करते हैं. इसलिए अब दलित बच्चों के नाम वैसे ही मनभावन हैं जैसे ऊँची जातियों के.
दलित कार्यकर्ता कहते हैं कि पहले वे नाम के लिए पुरोहितों पर निर्भर रहते थे, इसलिए उनके हिस्से ख़राब नाम आते रहे हैं.
मगर पुरोहित कहते हैं कि इसके लिए पंडित -पुरोहित को दोष देना ठीक नहीं है.
हिन्दू समाज में मंत्रोच्चार और धार्मिक विधि-विधान के बीच नवजात का नामकरण किया जाता रहा है.
मगर जब नामों का बँटवारा होता है तो ना जाने क्यों दलित के हिस्से ऐसे नाम आते हैं जो हीनता का बोध कराते हैं.
अब हमारे बच्चों के नाम मुकेश, सुरेश, अमित और विवेक जैसे मिलेंगे. पहले ऐसा नहीं होता था. हमारे बच्चो को कजोड़,गोबरी लाल,नात्या और धूलि लाला जैसे नाम दिए जाते थे.
बदुलाल, दलित कार्यकर्ता
कोई ऊँची जात का है, उम्रदराज़ है, तो भी उसे सत्तर साल की आयु हो जाने पर भी ‘नवीन’ नाम से पुकारा जा सकता है.
लेकिन दलित के घर पैदा हुआ नवजात, दुनिया के लिए नवीन है.
मगर उसे नाम मिला बोदू राम. बोदू यानि पुराना.
दलित का बच्चा सुंदर सलोना है, लेकिन उसे नाम मिला कोजा राम, कोजा यानि बदसूरत या कुरूप.
पर ये ही नाम ऊँची जात तक जाते जाते स्वरूप हो जाता है.
इन हीन नामों की पालकी ढोते रहे दलितों ने अब इससे मुक्ति पा ली है.
बदलाव
रैली
दलित समुदाय हाल के वर्षों में अपने अधिकारों को लेकर काफ़ी सचेत हुआ है
जयपुर जिले में चक्वाडा के दलित कार्यकर्ता बदुलाल कहते है,”हाल के वर्षो में बड़ा बदलाव आया है.हम अब नाम के लिए दलित पंडे-पुरोहितों के पास नहीं जाते. इसलिए अब हमारे बच्चों के नाम मुकेश, सुरेश, अमित और विवेक जैसे मिलेंगे.
"पहले ऐसा नहीं होता था. हमारे बच्चो को कजोड़,गोबरी लाल,नात्या और धूलि लाला जैसे नाम दिए जाते थे. अब कोई नाम से ये नहीं पहचान नहीं सकता है कि ये दलित है. सरनेम पता लगने के बाद तो और बात है.लेकिन नाम से पता नहीं किया जा सकता है."
हिन्दू नामों की फेहरिस्त कहती है पुरुषार्थ और शौर्य से जुड़े नाम क्षत्रिय लोगो के लिए आरक्षित हैं.
मसलन पराक्रम सिंह,संग्राम सिंह ,युद्धवीर सिंह जैसे नाम शासक जातियों के लिए तय हो गए .
समाज के निचले हिस्से को नाम के साथ कभी 'सिंह' नसीब नहीं हुआ.
मगर क्षत्रिय जाति में शेर-सिंह, यानी एक ही व्यक्ति अपने नाम में दो-दो शेर लगा सकता है.
व्यापार करने वाली जातियों ने ऐसे नाम चुने जो अर्थशास्त्र का आभास कराते हों - जैसे लाभचंद,धनराज और लक्ष्मी नारायण.
फिर बुद्धिमता की बात आई तो विवेक ध्वनित करने वाले नाम विप्र लोगो ने अपने साथ रख लिए.
आधार
ये नाम ऐसे इसलिए होते हैं क्योंकि हमने नहीं रखे ,हमें ऐसे नाम के लिए बाध्य किया गया. अगर हमने किसी का नाम झंडा सिंह रखा तो उसे झंडु कर दिया गया. आज करके बताए, आज मेरा नाम बदल कर बताए
ओमप्रकाश वाल्मीकि, साहित्यकार
जयपुर में धर्म शास्त्रों के ज्ञाता कलानाथ शास्त्री हिन्दू धर्म में नाम रखने के आधारों के बारे में जानते है .
वो कहते हैं,”नामकरण के तीन आधार हैं. एक तो ये कि नाम का पहला अक्षर वो हो जो उसके नक्षत्र के अनुरूप हो. दूसरा जो आस्तिक है वो अपने आराध्य भगवन और देवता के नाम पर अपने बच्चो का नाम रखते है जैसे कृष्ण को मानने वाले अपने संतान का नाम किशन रख लेते है.
तीसरा सिद्धांत है माता-पिता बच्चे की जैसी परिकल्पना करते हैं वैसा ही नाम रख लेते है. चौथा आधार अन्धविश्वासों पर टिका है. इसमें माँ-बाप को लगता है कि बच्चे के ग्रह ठीक नहीं हैं, लिहाजा कजोड़ी लाल जैसे नाम रख लेते हैं. उन्हें भरोसा होता है कि बुरे नाम रखने पर ग्रह टल जाएगा.
मगर शास्त्रों में अच्छा आधार बताया गया है कि नाम या तो देवता के नाम पर या फिर प्राक्रतिक ऋषि मुनियों के नाम पर हो. हाँ इतना जरूर कहा गया कि क्षय मूलक नाम नहीं होने चाहिए.
भारत में ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य का बड़ा नाम है. मैंने उनसे पूछा दलितों के नाम घसीटा, गोबरी लाल और, घासी जैसे क्यों होते हैं.
श्री वाल्मीकि कहते हैं,"ये नाम ऐसे इसलिए होते हैं क्योंकि हमने नहीं रखे ,हमें ऐसे नाम के लिए बाध्य किया गया. अगर हमने किसी का नाम झंडा सिंह रखा तो उसे झंडु कर दिया गया. आज करके बताए, आज मेरा नाम बदल कर बताए.
"मैंने जान बूझकर वाल्मीकि उपनाम रखा .ताकि मेरी जात कोई ना पूछे. अगर मैं न लिखता तो ढूँढ़ कर पूछते कि तुम जाति से कौन हो. वे एक्स-रे मशीन लगा लगा कर ढूंढते हैं किस जाति के हो."
अंग्रेज़ी के नामी कवि शेक्सपियर ने कभी कहा था कि नाम में क्या रखा है. वो भारत में होते तो कहते नाम में सब कुछ रखा है.
जयपुर में एक दलित विद्यार्थी प्रीति कहती है," नाम बदल गया तो क्या. अब हर जगह आपका जाति नाम या सरनेम पूछा जाता है.
"जब मैं प्रीति नाम बताती हूँ तो पूछते है आगे क्या लगाती हो, वो सरनेम जानना चाहते हैं."
बचाव
दरसल कुछ जातियों में हीनता का भाव भरा है. अब उसमें सुधार आ रहा है
सतीश शर्मा, संपादक, ज्योतिष मंथन
ज्योतिष मंथन के संपादक सतीश शर्मा कहते हैं हीनता बोधक नामों के लिए पुरोहित या पंडितों को दोष देना ग़लत है.
वे कहते हैं,''विप्र कही जाती व्यवस्था को पुष्ट करने के लिए तो ज़िम्मेदार कहे जा सकते हैं, मगर ऐसे नामों के लिए उन्हें दोष देना ठीक नहीं है. दरसल कुछ जातियों में हीनता का भाव भरा है. अब उसमें सुधार आ रहा है.
"मेरे पास कई दलित माता-पिता अपने बच्चों के नामकरण के लिए आते है, हम कभी ऐसे नहीं सोचते कि कौन किस जाति से है. हम कभी जाति के आधार पर नाम में भेद नहीं करते हैं."
समाज ने जब संसाधनों का बँटवारा किया तो दलित के हिस्से जमीन का टुकड़ा नहीं आया. रिहाईश का मौक़ा आया तो उसे गाँव से बाहर बसेरा मिला. मंदिरों में भी उसे आखिरी छोर में ठौर मिला.
सदियों से उसके हिस्से ऐसे नाम आते रहे जो दासता का भाव भरते थे. अब वो बीती बात है क्योंकि दलित अपनी हस्ती और हैसियत
ख़ुद बनाने लगा है.

                                 -नारायण बारेठ. बी.बी.सी. 

बुधवार, अक्तूबर 06, 2010

क्या भारत एक महाशक्ति है?

आज पुस्तकालय में एक सवाल गेंद की तरह सामने आया. क्या भारत एक महाशक्ति है ? एक गांव के साथी ने पूछा था. मुझे वर्मा जी की कुछ बातें याद आईं, मैंने अपने तर्क भी कुछ उसी तर्ज पर दिए..


क्या उस पहलवान को महान कहा जायेगा जिसके बीवी बच्चे भूखे मर रहें हों.  सारे परिवार का जिन्दा रहना अधिक जरूरी है या कि व्यक्ति का पहलवान बनना?  अगर परिवार का एक व्यक्ति औरों को भूखा रखने की कीमत पर भी खुद को पहलवान बनाने का निर्णय लेता है तो उसके जीवन-मूल्य और मान्यताओं को क्या कहा जाएगा?

भारत में  सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहा है और लोग भूखों मर रहे हैं.  भारत आर्थिक मंदी के दौर में  भी तेजी से विकास कर रहा है और किसान आत्महत्या कर रहें हैं.  भारत का भारी औद्योगीकरण हो रहा है पर बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है.भारत ७०००० करोड़ खर्च करके कामन-वेल्थ गेम्स करवाता है और भारत के अधिकांश स्कूलों मैं खेल का मैदान तक नहीं है.  भारत में दुनिया के कुछ सबसे अमीर लोग रहते हैं पर दुनिया के सबसे अधिक गरीब भी.  भारत के पास परमाणू बम है पर कुछ आतंकवादी बिना रोक-टोक मुंबई के ताजमहल होटल में घुस आतें हैं और भारत की सुरक्षा-व्यवस्था को मजाक बना देते हैं.  भारत आर्थिक विकास दर में सबसे अगड़ों में है और मानवीय विकास दर में सबसे पिछडों में.  आदि, आदि....क्या ऐसा देश महाशक्ति बन सकता है .

सोवियत यूनियन दुनिया की महाशक्ति था - अमरीका की सामरिक शक्ति को टक्कर देता हुआ.  पर वहां की जनता असंतुष्ट थी.  बिना किसी बाहरी आक्रमण के ऐसी महाशक्ति अंदर से टूट कर बिखर गई.

वास्तव में किसी देश की वास्तविक शक्ति होती है उसकी जनता.  एक संतुष्ट, विकासमान और न्यायसंगत समाज ही वास्तव में शक्तिशाली हो सकता है. शक्ति का प्रतिमान विध्वंस नहीं सृजन होना चाहिए.

वो कन्विंस नहीं हुआ. आप क्या कहते है?

गुरुवार, सितंबर 30, 2010

नक्शा


वह मात्र सात आठ साल का होगा. जब से अपने पैरों से चलना शुरू किया था तब से वह कभी  अपनी मां , कभी अपने पिता तो कभी बड़े  भाई बहनों के साथ मिलकर काम पर निलकने लगा था.  आज इतफ़ाक से वह अपने पिता के साथ था.  कूड़ा बीनते बीनते उसके हाथ एक बड़ा सा कागज़ लगा जिस पर रंगबिरंगी आडी-तिरछी रेखाएं खिंची थी.
'यह क्या है बापू?'
बाप ने एक सरसरी निगाह दौड़ाई, 'नक्शा है.'
'वह क्या होता है?'
'नक़्शे को देख पर यह पता लग जाता है की कौन सी जगह कहाँ पर है.'
'इसमें अपना घर कहाँ पर है?'
बाप समझदार मालूम होता था.  बेटा निराश न हो जाए इसलिए उसने उत्तर दिया,'नक्शा पूरा नहीं हैं न, जो कोना फट गया है उसी हिस्से में शायद हमारा घर है.'
बच्चा कूड़े में और तेज़ी से कुछ ढूँढने लगा.'
 क्या खोज रहे हो?' बाप ने पूछा .
'अपना घर. वो मिल जाये तो फिर पुलिया के नीचे नहीं सोना पड़ेगा न.' 
दोनों अपने काम पर लगे रहे.
रात बच्चा पुलिया के नीचे बैठे बैठे निश्चय कर रहा था की कल वो बड़े ढेर में से नक़्शे का बाकी टुकड़ा ढूंढेगा.

बुधवार, सितंबर 29, 2010

भगत सिंह जन्म दिवस

'सौ सौ पड़ें मुसीबत बेटा उम्र जवान मैं
भगत सिंह कदे जी घबरा जा बंद मकान मैं'

ग्रामीण महिला संतरो ने ग्रामवासियों के सामने मंच पर खड़े होकर यह रागिनी गाई तो पांच छह सौ लोगों की भीड़ वाह वाह कर उठी. मौका था भगत सिंह के जन्म दिन पर तितरम गांव के पुस्तकालय के प्रांगण मैं सत्ताईस और अठाईस सितम्बर की मध्य रात्रि को भगत सिंह के जन्मदिवस के आयोजन का. आठ बजे रात को शुरू हुआ कार्यक्रम खतम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. एक के बाद एक रागनी, भगत सिंह के जीवन को लक्ष्य करते हुए.

रामधारी खटकर और राजेश दलाल की जुगलबंदी ने ऐसा समां बंधा कि दर्शक मंत्रमुग्ध हो कर देर रात तक भगत सिंह के किस्से सुनते रहे. कार्यक्रम में ग्रामीण महिलाओं की विशाल उपस्थिति ने न सिर्फ कलाकारों अपितु आयोजकों को भी हैरानी मैं डाल दिया. अचरज तो तब हुआ जब एक महिला ने उठ कर राजेश को उसकी भ्रूण-हत्या पर लिखी प्रसिद्ध हरियाणवी कविता सुनाने की फरमाइश की.

ओनर-किलिंग और घटते लिंग अनुपात के बीच झूलते हरियाणा में ऐसे कार्यक्रम भी चमकते हैं तारों की तरह और उम्मीद बंधाते हैं.

पंडित लखमीचंद - एक परिचय


आम तौर पर एक धारणा बनी हुई है की हरियाणा में कल्चर के नाम पर सिर्फ एग्रीकल्चर है, लेकिन जो लोग ऐसा सोचते हैं दरअसल वे हरियाणा की समृद्ध सांस्कृतिक, सामाजिक विरासत से परिचित ही नहीं हैं. विभिन्न कालखंडो में हरियाणा एवं हरयाणवी लोगों नें ऐसे ऐसे सांस्कृतिक आयाम स्थापित कियें हैं जिसका कोई सानी नहीं है. जब हम हरियाणा की सांस्कृतिक विरासत की बात करेंगे तो पंडित लखमीचंद का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य है. आज जब संगीत और कला के नाम पर री मिक्स का शोर शराबा सुनाई देता है और रागनियों के नाम पर हिंदी फ़िल्मी गानों की फूहड़ नक़ल तो लखमीचंद बहुत याद आते हैं. आईए हरयाणा के इस शेक्सपियर के बारे में थोड़ा जाने.
पंडित लख्मीचंद का जन्म सोनीपत जिले के गांव जाटी कलां के एक किसान परिवार में हुआ था. क्योंकि परिवार का गुज़ारा ही मुश्किल से होता था इसलिए बालक लखमी को स्कूल भेजने की बजाए घर के पशु चराने का काम सौंप दिया गया. गायें, भैसें चराता ये बालक कुछ न कुछ गाता रहता. साथी ग्वालों से कुछ लोक गीत सुन सुन कर इस बच्चे को भी उनकी कुछ पंक्तियाँ याद हो गई. फिर क्या था - इधर मवेशी चरते और उधर लखमी अपनी तान छेड़ देता. लक्मी की गायन प्रतिभा से प्रभावित हो कर उस ज़माने के भजनी और सांगी उसे अपने साथ ले जाने लगे. घर वाले भी उनके इस शौक से कुछ चिंतित रहने लगे. पर मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की. एक बार मशहूर संगी पंडित दीपचंद का सांग देखने के लिए दस साल कि उम्र में ही वो कई दिन घर से बाहर रहे. इसी तरह शेरी खांडा के निहाल सांगी का सांग देखने गए तो कई दिन बाद घर लौटे. कहने का अभिप्राय ये है कि पूत के पांव पालने में ही नज़र आने लगे थे.

प्रतिभा हो तो कुदरत भी साथ देती है. ऐसा ही कुछ बालक लखमी के साथ हुआ. गांव में कोई शादी थी और उस जमाने के प्रसिद्ध कवि और गायक मान सिंह का उनके गांव में आना हुआ.
रातभर मान सिंह के भजन चलते रहे और बालक लखमी पर जादू सा का असर करते रहे. एकलव्य की इस बालक ने भी मन ही मन गुरु धारण कर लिया. लेकिन मान सिंह द्रोणाचार्य नहीं थे. उन्होंने इस बच्चे की प्रतिभा को पहचान लिया था और संगीत की औपचारिक शिक्षा देने के लिए उन्होंने उसे शिष्य बनाकर गायन कला के पाठ पदाने आरम्भ कर दिए. थोड़े ही समय में बालक लखमी गायन कला में निपुण हो गया.

लखमी गायक तो हो गया लेकिन उसकी प्रतिभा और रचनाशीलता अभी संतुष्ट नहीं हुई थी. उसमे तो कुछ और ही ललक थी. उसे अभिनय भी सीखना था. आज भी अगर कोई बच्चा कहे कि मुझे एक्टिंग सीखनी हैं तो आप जानते हैं कि माँ बाप और समाज की प्रतिक्रिया क्या रहेगी? लेकिन लखमी पर तो धुन सवार थी. उस दौर में भी अभिनय और सांग आदि विधाओं को कोई अच्छी चीज़ नहीं माना जाता था. खैर, अब लखमी हो लिए मेहंदीपुर के श्रीचंद सांगी की सांग मण्डली में. फिर अपनी प्रतिभा को और निखारने के लिए पहुँच गए सोहन कुंडलवाला के पास.

अपनी कला को मांजने के लिए लख्मीचंद बेशक कहीं जाते रहे हों लेकिन वह सच्चे दिल से मान सिंह को ही अपना गुरु मानते रहे क्योंकि इस कला की प्रथमतः बारीकियां उन्होंने उनसे ही सीखी थी. एक बार बरेली के किसी कार्यक्रम में सोहन कुंडल वाला नें मान सिंह के अपमान में कुछ शब्द कह दिए तो स्वाभिमानी लखमीचंद उन्हें नमस्ते कह कर चल दिए. बड़ी मुश्किल से आयोजकों ने उन्हें रोका. महम के सूबेदार शंकर सिंह के काफी आग्रह पर लख्मीचंद कार्यक्रम तो पूरा करने के लिए मान गए लेकिन उनकी गुरु के प्रति श्रद्धा अभेद्य बनी रही . इस बात से बिलबिला कर कुंडल वाला के कुछ चेलों ने लख्मीचंद को धोखे से ज़हर पिला दिया. इलाज़ करने पर उनकी जान तो बच गई पर आवाज बेसुरी हो गई. सरस्वती के साधक को ये कैसे मंजूर होना था. अपने सुर वापस पाने के लिए लखमी चंद रोज गांव के एक सूखे कुवें में उतर जाते और घंटों अभ्यास करते. महीनों तक अभ्यास चलता रहा और लखमी चंद अपनी आवाज को फिर साधने में कामयाब हो गए.

कुंडलवाला का गरूर अभी तक टूटा नहीं था. उसे यकीन ही नहीं था कि लखमी चंद अब गा सकता है. लखमीचंद के गावं मै ही कुंडल वाला ने उन्हें चुनौती दी कि वह उनके बराबर गा कर दिखाए. फिर क्या था - एक सांग में कुंडलवाला ने राजा भोज की भूमिका की और लखमी ने नायिका के रूप में स्त्री पात्र किया. उनके अभिनय एवं संवाद शैली को देख कर दर्शक तो गद्
गद् हुए पर राजा भोज की स्थिति गंगू तेली जैसी हो गई.

तब तक लखमीचंद का डंका चारों और बजने लग गया था. लेकिन ज्ञान अर्जित करने की उनकी पिपासा अभी शांत नहीं हुई थी. वह विद्वानों की संगत करते उनसे तमाम किस्म की चर्चा करते. वेद-शाश्त्र हों या रामायण -महाभारत , गीता हो या रामायण - लखमीचंद चंद ने इन सब ग्रथों को साधुजनो और विद्वानों की संगती में ही जाना समझा. इतना ही प्रयाप्त नहीं था इस महँ कलाकार के लिए. उन्होंने इन महान ग्रंथों के किस्सों को आम लोगों को समझी जाने वाली जबान में फिर से छन्दबद्ध करना शुरू किया और उन्हें सांगो की शक्ल में रूपांतरित करना शुरू किया. एक अनपढ़ गंवार लड़का ये सब कर पाया यह कल्पना के परे की बात लगती है.

आज जब रागनियों के नाम पर अधिकांश अश्लीलता परोसी जा रही है तो लखमीचंद जैसे गायक और कलाकार की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है.उनके प्रमुख सांगो मे हैं: राजा भोज, चंदेर्किरण , हीर-राँझा , चापसिंह, नल-दमयंती, सत्यवान-सावित्री, मीराबाई, पद्मावत. उनके एक प्रसिद्ध सांग हूर मेनका का अंग्रेज़ी अनुवाद हाल ही में लेखक एवं पुलिस अधिकारी राजबीर देसवाल ने किया है. जिसके लिए उन्हें हरियाणा सरकार द्वारा प्रुस्कृत भी किया गया है. आज बहुत आवश्यकता है ऐसे बहुत से प्रयासों की, जिनके माध्यम से हम अपनी नयी पीढ़ी को अपनी विरासत से परिचित करा पायें.

(उपरोक्त लेख डा. पूरणचंद के शोध पर आधारित है.)


अनुवाद दिवस

बहुत कम लोग जानते हैं कि 30 सितम्बर को विश्व अनुवाद दिवस होता है. जिस प्रकार किसी भी भाषा मैं मौलिक लेखन का अपना महत्व है उसी तरह अनुवाद ने भी मानव संस्कृति एवं साहित्य के विकास मैं मह्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. कल्पना कीजिये अगर विश्व के श्रेष्ठतम साहित्य का विभिन्न भाषाओं मैं अनुवाद न हुआ होता तो अलग अलग समाज मात्र कूप मंडूक ही बने रहते और दुनिया के भिन्न भाषा वाले दूसरे समाजों में क्या हो रहा है इस बारे में उन्हें कोई ज्ञान न होता.

भारत में अगर भारतीय साहित्य के पश्चात अगर किसी और साहित्य को सबसे अधिक पढ़ा गया है तो वह रूसी साहित्य है. एक दौर में रूसी साहित्य का हिंदी अनुवाद भारत में खूब बिकता था और पढ़ा जाता था. याद कीजिये रादुगा प्रकाशन की किताबें. गोर्की, तोल्स्तोय दोस्तोवस्की और दूसरे महान रूसी लेखकों को भारत की दो तीन पीढ़ियों में से अधिकांश ने उन्हें हिंदी में ही पढ़ा होगा. इसके अतिरिक्त और भी न जाने विश्व भर के कितने ही लेखकों के हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओँ में अनुवाद उपलब्ध हैं. टैगोर और गाँधी जी के लेखन को विश्व की लगभग सभी भाषाओँ में अनूदित किया गया है. पूरा विश्व इन नामों से परिचित है इसका मुख्य श्रेय अनुवाद को भी जाता है.

अधिकांश लोगों का मानना है कि अनुवाद कला मात्र कोई सौ दो सौ साल पुरानी है लेकिन सच यह है कि अनुवाद कला अत्यंत प्राचीन है ये बात और है कि इसकी लोकप्रियता पिछली दो तीन सदी में बढ़ी. आज तो आलम ये है कि किसी भी प्रतिष्ठित लेखक की पुस्तक एक साथ कई भाषाओं में प्रकाशित होती है और एक ही साथ दुनिया के अलग अलग देशों के अलग अलग अलग भाषा जानने वाले लोगों के बीच पहुँच जाती है.
बाइबल दुनिया की सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली किताबों में से एक है. और बाइबल ही उन विरली पुस्तकों में से एक है जिसका विश्व की हर भाषा में अनुवाद हुआ है. अनुवाद कला का सम्बन्ध भी बाइबल से ही है.

अनुवाद दिवस सेंट जेरोम की याद मनाया जाता है. सेंट जेरोम की वास्तविक जन्मतिथि के बारे में इतिहास में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है पर यह माना जाता है कि उनका जन्म सन 340-42 के आसपास क्रोअशिया के एक छोटे से शहर स्त्रिदों में हुआ था . उनकी मृत्यु की वास्तविक तिथि इतिहास में दर्ज है क्योंकि उन्होंने जीवन भर ऐसे कामों को अंजाम दिया जिसकी नींव पर विश्व साहित्य के विकास की इमारत बुलंद होती चली गई. सेंट जेरोम की मृत्यु 30 सितम्बर 420 को पेलेस्तीन के बेथलेहम नाम के शहर में हुई थी. उन्ही की स्मृति में विश्व भर में अनुवाद दिवस मनाया जाता है. सेंट जेरोम नें ही बाइबल का पहला लेटिन अनुवाद किया और उन्होंने अनुवाद कला पर कई महत्वपूर्ण लेख लिखे.

390 और 405 के बीच, सेंट जेरोम नें 'ओल्ड टेस्टामेंट' का हिब्रु से अनुवाद किया. इस बीच उन्होंने 'बुक्स ऑफ सैमुअल एंड ऑफ किंग्स', और 'न्यू टेस्टामेंट' जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकों के साथ साथ दर्शन एवं रहस्यवाद के विभिन्न ग्रंथों का भी अनुवाद किया एवं समकालीन बाइबल ग्रंथो पर विभिन्न भाषाओँ में टीकाएं लिखी. सेंट जेरोम के बारे में कहा जाता है की उन्होंने अत्यंत तेजी से अनुवाद एवं लेखन कार्य किया क्योंकि वे चाहते थे की अपने जीवन काल में ही वे उपलब्ध सभी ग्रंथो का अनुवाद कर लें अथवा विभिन्न भाषाओँ में अपनी टिप्पणियाँ दर्ज कर दे. इसीलये इतिहासकारों के अनुसार उनके लेखन एवं अनुवादों में कहीं कहीं असमानता भी नज़र आती है. सेंट जेरोम नें भी अपने जीवन के अंतिम वर्षों में लिखा है कि वह कई चीज़ों की और बेहतर व्याख्या कर सकते थे. लेकिन इस से उनके कार्य का महत्व कम नहीं हो जाता. क्योंकि अपनी विरासत में सेंट जेरोम विश्व को ऐसी विधा दे गए जिसने साहित्य के विकास में महत्ती भूमिका निभाई.

हालाँकि अनुवाद दिवस मनाने का चलन बहुत पुराना नहीं है.यद्यपि पहले भी सेंट जेरोम की स्मृति में 30 सितम्बर को कई देशों में कई कार्यक्रम आयोजित् किये जाते थे परन्तु वर्ष 1991 में विश्व के अग्रणी अनुवादकों ने इस दिन को अधिकारिक तौर पर अनुवाद दिवस के मनाने का निर्णय किया. इस दिन कई देशों में अनुवाद सम्बन्धी कई कार्यक्रम, कार्यशालाएं, गोष्टियाँ, सेमीनार इत्यादि आयोजित किये जाते हैं. भारत में भी अनुवादकों द्वारा इस तरह की पहल की आवश्यता है.
कुमार मुकेश