तितरम मोड़ क्या है?

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सम्भव(SAMBHAV - Social Action for Mobilisation & Betterment of Human through Audio-Visuals) सामाजिक एवं सांस्कृतिक सरोकारों को समर्पित मंच है. हमारा विश्वास है कि जन-सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर जन-भागीदारी सुनिश्चित करके समाज को आगे ले जाना मुमकिन है.

सोमवार, अक्तूबर 11, 2010

अम्बाला के किसान भी करेंगे आंदोलन

 अम्बाला शहर के साथ लगते गांवों की 1800 एकड़ जमीन पर मॉडल इंडस्ट्रियल टाउनशिप बनाने की सरकारी योजना के खिलाफ अम्बाला शहर के साथ लगते करीब आधा दर्जन गावों के किसान अब आंदोलन पर उतारू हो गए हैं।  पंजोखरा, मंडौर, खतौली, काकरू, जनेतपुर, गरनाला के सैकड़ों किसानों ने जमीन बचाओ संघर्ष समिति के तत्वावधान में उपायुक्त दफ्तर के सामने धरना दिया और आईएमटी के लिए जमीन अधिग्रहण किए जाने को लेकर नारेबाजी की। किसानों का कहना था कि वह किसी भी कीमत पर अपनी जमीन का अधिग्रहण नहीं होने देंगे और जरूरत पड़ी तो इसके लिए राज्यव्यापी आंदोलन भी छेड़ा जाएगा।
किसानों ने सिटी मजिस्ट्रेट को अपनी मांगों का एक ज्ञापन भी दिया, जिसमें कहा गया कि उनकी उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण किया जाना, उन्हें एक तरह से गांवों से बेदखल करना है। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यह घोषणा कर चुके हैं कि उपजाऊ जमीन का किसी अन्य काम के लिए अधिग्रहण नहीं किया जाना चाहिए, इसके बावजूद प्रशासन उनकी जमीन का जबरन अधिग्रहण करने की तैयारी में है। उन्होंने कहा कि यदि सरकार ने धक्के से उनकी जमीन लेनी चाहिए तो पश्चिम बंगाल के सिंगूर की तरह आंदोलन छेड़ा जाएगा।
उल्लेखनीय है कि उधर हिसार के निकट गांव गोरखपुर के किसान भी न्यूक्लीयर प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण करने के विरोध में आंदोलनरत हैं.
किसानों ने  प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी , राहुल गांधी व केन्द्रीय मंत्री कुमारी सैलजा के अलावा मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को भी ज्ञापन  भेजें  है। उन्होंने कहा कि यदि राज्य सरकार ने उनकी मांग न मानी तो किसानों का प्रतिनिधित्व मंडल दिल्ली में जाकर सोनिया गांधी व राहुल गांधी से मिलेगा।

रविवार, अक्तूबर 10, 2010

गाँव गया था गाँव से भागा

गाँव गया था
गाँव से भागा
रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आँगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आँख में बाल देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हकीम देखकर
गिरवी राम रहीम देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
नए धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएँ-कुएँ में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
नए नए हथियार देखकर
लहू-लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै जैकार देखकर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का शृंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा जुनून देखकर
गंजे को नाखून देखकर
उजबक अफलातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।
-कैलाश गौतम 

दलित तज रहे हीनता सूचक नाम


रैली
भारत का दलित समुदाय लंबे समय तक हीन नामों की पालकी ढोता रहा था
उत्तर भारत के दलित समाज में बच्चों के नामकरण में बड़ा परिवर्तन आया है. दलितों ने अपने अधिकारों के प्रति चेतना के साथ हीनता सूचक नामों को तिलांजलि दे दी है.
अब वे अपने बच्चों का नामकरण ख़ुद करते हैं. इसलिए अब दलित बच्चों के नाम वैसे ही मनभावन हैं जैसे ऊँची जातियों के.
दलित कार्यकर्ता कहते हैं कि पहले वे नाम के लिए पुरोहितों पर निर्भर रहते थे, इसलिए उनके हिस्से ख़राब नाम आते रहे हैं.
मगर पुरोहित कहते हैं कि इसके लिए पंडित -पुरोहित को दोष देना ठीक नहीं है.
हिन्दू समाज में मंत्रोच्चार और धार्मिक विधि-विधान के बीच नवजात का नामकरण किया जाता रहा है.
मगर जब नामों का बँटवारा होता है तो ना जाने क्यों दलित के हिस्से ऐसे नाम आते हैं जो हीनता का बोध कराते हैं.
अब हमारे बच्चों के नाम मुकेश, सुरेश, अमित और विवेक जैसे मिलेंगे. पहले ऐसा नहीं होता था. हमारे बच्चो को कजोड़,गोबरी लाल,नात्या और धूलि लाला जैसे नाम दिए जाते थे.
बदुलाल, दलित कार्यकर्ता
कोई ऊँची जात का है, उम्रदराज़ है, तो भी उसे सत्तर साल की आयु हो जाने पर भी ‘नवीन’ नाम से पुकारा जा सकता है.
लेकिन दलित के घर पैदा हुआ नवजात, दुनिया के लिए नवीन है.
मगर उसे नाम मिला बोदू राम. बोदू यानि पुराना.
दलित का बच्चा सुंदर सलोना है, लेकिन उसे नाम मिला कोजा राम, कोजा यानि बदसूरत या कुरूप.
पर ये ही नाम ऊँची जात तक जाते जाते स्वरूप हो जाता है.
इन हीन नामों की पालकी ढोते रहे दलितों ने अब इससे मुक्ति पा ली है.
बदलाव
रैली
दलित समुदाय हाल के वर्षों में अपने अधिकारों को लेकर काफ़ी सचेत हुआ है
जयपुर जिले में चक्वाडा के दलित कार्यकर्ता बदुलाल कहते है,”हाल के वर्षो में बड़ा बदलाव आया है.हम अब नाम के लिए दलित पंडे-पुरोहितों के पास नहीं जाते. इसलिए अब हमारे बच्चों के नाम मुकेश, सुरेश, अमित और विवेक जैसे मिलेंगे.
"पहले ऐसा नहीं होता था. हमारे बच्चो को कजोड़,गोबरी लाल,नात्या और धूलि लाला जैसे नाम दिए जाते थे. अब कोई नाम से ये नहीं पहचान नहीं सकता है कि ये दलित है. सरनेम पता लगने के बाद तो और बात है.लेकिन नाम से पता नहीं किया जा सकता है."
हिन्दू नामों की फेहरिस्त कहती है पुरुषार्थ और शौर्य से जुड़े नाम क्षत्रिय लोगो के लिए आरक्षित हैं.
मसलन पराक्रम सिंह,संग्राम सिंह ,युद्धवीर सिंह जैसे नाम शासक जातियों के लिए तय हो गए .
समाज के निचले हिस्से को नाम के साथ कभी 'सिंह' नसीब नहीं हुआ.
मगर क्षत्रिय जाति में शेर-सिंह, यानी एक ही व्यक्ति अपने नाम में दो-दो शेर लगा सकता है.
व्यापार करने वाली जातियों ने ऐसे नाम चुने जो अर्थशास्त्र का आभास कराते हों - जैसे लाभचंद,धनराज और लक्ष्मी नारायण.
फिर बुद्धिमता की बात आई तो विवेक ध्वनित करने वाले नाम विप्र लोगो ने अपने साथ रख लिए.
आधार
ये नाम ऐसे इसलिए होते हैं क्योंकि हमने नहीं रखे ,हमें ऐसे नाम के लिए बाध्य किया गया. अगर हमने किसी का नाम झंडा सिंह रखा तो उसे झंडु कर दिया गया. आज करके बताए, आज मेरा नाम बदल कर बताए
ओमप्रकाश वाल्मीकि, साहित्यकार
जयपुर में धर्म शास्त्रों के ज्ञाता कलानाथ शास्त्री हिन्दू धर्म में नाम रखने के आधारों के बारे में जानते है .
वो कहते हैं,”नामकरण के तीन आधार हैं. एक तो ये कि नाम का पहला अक्षर वो हो जो उसके नक्षत्र के अनुरूप हो. दूसरा जो आस्तिक है वो अपने आराध्य भगवन और देवता के नाम पर अपने बच्चो का नाम रखते है जैसे कृष्ण को मानने वाले अपने संतान का नाम किशन रख लेते है.
तीसरा सिद्धांत है माता-पिता बच्चे की जैसी परिकल्पना करते हैं वैसा ही नाम रख लेते है. चौथा आधार अन्धविश्वासों पर टिका है. इसमें माँ-बाप को लगता है कि बच्चे के ग्रह ठीक नहीं हैं, लिहाजा कजोड़ी लाल जैसे नाम रख लेते हैं. उन्हें भरोसा होता है कि बुरे नाम रखने पर ग्रह टल जाएगा.
मगर शास्त्रों में अच्छा आधार बताया गया है कि नाम या तो देवता के नाम पर या फिर प्राक्रतिक ऋषि मुनियों के नाम पर हो. हाँ इतना जरूर कहा गया कि क्षय मूलक नाम नहीं होने चाहिए.
भारत में ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य का बड़ा नाम है. मैंने उनसे पूछा दलितों के नाम घसीटा, गोबरी लाल और, घासी जैसे क्यों होते हैं.
श्री वाल्मीकि कहते हैं,"ये नाम ऐसे इसलिए होते हैं क्योंकि हमने नहीं रखे ,हमें ऐसे नाम के लिए बाध्य किया गया. अगर हमने किसी का नाम झंडा सिंह रखा तो उसे झंडु कर दिया गया. आज करके बताए, आज मेरा नाम बदल कर बताए.
"मैंने जान बूझकर वाल्मीकि उपनाम रखा .ताकि मेरी जात कोई ना पूछे. अगर मैं न लिखता तो ढूँढ़ कर पूछते कि तुम जाति से कौन हो. वे एक्स-रे मशीन लगा लगा कर ढूंढते हैं किस जाति के हो."
अंग्रेज़ी के नामी कवि शेक्सपियर ने कभी कहा था कि नाम में क्या रखा है. वो भारत में होते तो कहते नाम में सब कुछ रखा है.
जयपुर में एक दलित विद्यार्थी प्रीति कहती है," नाम बदल गया तो क्या. अब हर जगह आपका जाति नाम या सरनेम पूछा जाता है.
"जब मैं प्रीति नाम बताती हूँ तो पूछते है आगे क्या लगाती हो, वो सरनेम जानना चाहते हैं."
बचाव
दरसल कुछ जातियों में हीनता का भाव भरा है. अब उसमें सुधार आ रहा है
सतीश शर्मा, संपादक, ज्योतिष मंथन
ज्योतिष मंथन के संपादक सतीश शर्मा कहते हैं हीनता बोधक नामों के लिए पुरोहित या पंडितों को दोष देना ग़लत है.
वे कहते हैं,''विप्र कही जाती व्यवस्था को पुष्ट करने के लिए तो ज़िम्मेदार कहे जा सकते हैं, मगर ऐसे नामों के लिए उन्हें दोष देना ठीक नहीं है. दरसल कुछ जातियों में हीनता का भाव भरा है. अब उसमें सुधार आ रहा है.
"मेरे पास कई दलित माता-पिता अपने बच्चों के नामकरण के लिए आते है, हम कभी ऐसे नहीं सोचते कि कौन किस जाति से है. हम कभी जाति के आधार पर नाम में भेद नहीं करते हैं."
समाज ने जब संसाधनों का बँटवारा किया तो दलित के हिस्से जमीन का टुकड़ा नहीं आया. रिहाईश का मौक़ा आया तो उसे गाँव से बाहर बसेरा मिला. मंदिरों में भी उसे आखिरी छोर में ठौर मिला.
सदियों से उसके हिस्से ऐसे नाम आते रहे जो दासता का भाव भरते थे. अब वो बीती बात है क्योंकि दलित अपनी हस्ती और हैसियत
ख़ुद बनाने लगा है.

                                 -नारायण बारेठ. बी.बी.सी. 

बुधवार, अक्तूबर 06, 2010

क्या भारत एक महाशक्ति है?

आज पुस्तकालय में एक सवाल गेंद की तरह सामने आया. क्या भारत एक महाशक्ति है ? एक गांव के साथी ने पूछा था. मुझे वर्मा जी की कुछ बातें याद आईं, मैंने अपने तर्क भी कुछ उसी तर्ज पर दिए..


क्या उस पहलवान को महान कहा जायेगा जिसके बीवी बच्चे भूखे मर रहें हों.  सारे परिवार का जिन्दा रहना अधिक जरूरी है या कि व्यक्ति का पहलवान बनना?  अगर परिवार का एक व्यक्ति औरों को भूखा रखने की कीमत पर भी खुद को पहलवान बनाने का निर्णय लेता है तो उसके जीवन-मूल्य और मान्यताओं को क्या कहा जाएगा?

भारत में  सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहा है और लोग भूखों मर रहे हैं.  भारत आर्थिक मंदी के दौर में  भी तेजी से विकास कर रहा है और किसान आत्महत्या कर रहें हैं.  भारत का भारी औद्योगीकरण हो रहा है पर बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है.भारत ७०००० करोड़ खर्च करके कामन-वेल्थ गेम्स करवाता है और भारत के अधिकांश स्कूलों मैं खेल का मैदान तक नहीं है.  भारत में दुनिया के कुछ सबसे अमीर लोग रहते हैं पर दुनिया के सबसे अधिक गरीब भी.  भारत के पास परमाणू बम है पर कुछ आतंकवादी बिना रोक-टोक मुंबई के ताजमहल होटल में घुस आतें हैं और भारत की सुरक्षा-व्यवस्था को मजाक बना देते हैं.  भारत आर्थिक विकास दर में सबसे अगड़ों में है और मानवीय विकास दर में सबसे पिछडों में.  आदि, आदि....क्या ऐसा देश महाशक्ति बन सकता है .

सोवियत यूनियन दुनिया की महाशक्ति था - अमरीका की सामरिक शक्ति को टक्कर देता हुआ.  पर वहां की जनता असंतुष्ट थी.  बिना किसी बाहरी आक्रमण के ऐसी महाशक्ति अंदर से टूट कर बिखर गई.

वास्तव में किसी देश की वास्तविक शक्ति होती है उसकी जनता.  एक संतुष्ट, विकासमान और न्यायसंगत समाज ही वास्तव में शक्तिशाली हो सकता है. शक्ति का प्रतिमान विध्वंस नहीं सृजन होना चाहिए.

वो कन्विंस नहीं हुआ. आप क्या कहते है?