तितरम मोड़ क्या है?

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सम्भव(SAMBHAV - Social Action for Mobilisation & Betterment of Human through Audio-Visuals) सामाजिक एवं सांस्कृतिक सरोकारों को समर्पित मंच है. हमारा विश्वास है कि जन-सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर जन-भागीदारी सुनिश्चित करके समाज को आगे ले जाना मुमकिन है.

शनिवार, अप्रैल 30, 2011

कब तक रोकोगे.... (कविता) (मई दिवस विशेष)


इतिहास की किताबों को
जो मन में आये बक लेने दो
अलां फलां चीज़ों के लिए
अमुक चमुक को श्रेय देने दो
पर...
मेरा भी यकीन करो
एक बात बतलाता हूँ
दिल्ली का लाल किला
मैंने ही बनाया है
ये और बात है कि
मैं इसकी गद्दी पर कभी बैठा
ना इस पर झंडा फहराया है
मेरे नाम पर कोई मार्ग नहीं
पर
सारी सड़कें मैंने ही बनाई हैं
दो जून की रोटी की खातिर
उम्र भर हड्डियाँ गलाई हैं
मैं गैस रिसने से मरता हूँ
मैं पानी भरने से मरता हूँ
कभी खदान में मरता हूँ
कभी खलिहान में मरता हूँ
मैं दो हाथ हूँ , फौलाद हूँ
पहाड़ समतल ज़मीं पाताल करता हूँ
समझ में ये नहीं आता
के जीता हूँ या फिर रोज़ मरता हूँ
मैंने ही
छोटे बड़े हर शहर को बसाया है
तमाम बिखरी चीज़ों को
करीने से सजाया है
कोई बतलाये मुझको
मेरी मेहनत की कीमत....
कौन लगाता है
मेरी पैदा की चीज़ों को
मेरे ही सामने बेच आता है
मुझे ना रोको कोई अब
नई दुनिया बसाने दो
मुनाफे का महल तोड़ो
ज़रूरत को , ज़रूरत से मिलाने दो !!!!!

पूर्णेंदु शुक्ल
(लेखक पत्रकार हैं और सम्प्रति टीम सी-वोटर में चुनाव विश्लेषक हैं।

गुरुवार, अप्रैल 28, 2011

मांस के झंडे - (मणिपुरी जनता के संघर्ष को सलाम के साथ)

कविता की जो थोड़ी बहुत समझ आयी वो अंशु को जानने  और उसकी कविता को पढ़ने के बाद ही आयी, और 'नोर्थ-ईस्ट' को जो थोड़ा बहुत जाना वो डा.लाल बहादुर वर्मा को जानने और उनके उपन्यास उत्तर पूर्व को पढ़ने के बाद ही जाना. छ:-सात साल पहले लिखी अंशु की इस कविता को आज भी पढता हूं तो डिस्टर्ब होता हूं, सबको होना चाहिए जो मणिपुर को जानते हैं या फिर  नहीं जानते .......

(मणिपुर में जुलाई2004, सेना ने मनोरमा की बलात्कार के बाद हत्या कर दी. मनोरमा के लिए न्याय की मांग करते महिलाओं ने निर्वस्त्र हो प्रदर्शन किया.  उस प्रदर्शन की हिस्सेदारी के लिए ये कविता......अंशु )
ये पोस्ट इरोम शर्मिला को समर्पित है 

एक उदास शाम


हरियाणा में खाप की पगड़ियों को अक्सर अपने सम्मान को खतरा नज़र आने लगता है जब कोई युवक-युवती रूढीगत परम्पराओं को ठेंगा दिखाते हुए अपने तरीके से विवाह करता है, ये पगडियां शर्म से क्यों नहीं झुकती जब लड़कियां भैसों से कम दाम पर दूसरे प्रदेशों से वंशवृद्धि के लिए लाई जा रही हैं, लड़के को ब्याहने के लिए अदला-बदली में लड़कियों को बेमेल विवाह के नरक में झोंका जाता है, हर गांव में दर्जनों कुंवारे लड़कों की भीड़ इन्हें क्यों नहीं नज़र आती जिन्हें घटते लिंग अनुपात, कम होती जोत, और गोत्र परम्परा के चलते एकाकी जीवन  जीना पड़ता है. कुर्बान मगर औरत को ही होना है पगड़ियों की सलामती का मसला जो है..........
हम कुछ कर नहीं पा रहें हैं साथी.........खुश रहना