तितरम मोड़ क्या है?

मेरी फ़ोटो
सम्भव(SAMBHAV - Social Action for Mobilisation & Betterment of Human through Audio-Visuals) सामाजिक एवं सांस्कृतिक सरोकारों को समर्पित मंच है. हमारा विश्वास है कि जन-सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर जन-भागीदारी सुनिश्चित करके समाज को आगे ले जाना मुमकिन है.

गुरुवार, सितंबर 30, 2010

नक्शा


वह मात्र सात आठ साल का होगा. जब से अपने पैरों से चलना शुरू किया था तब से वह कभी  अपनी मां , कभी अपने पिता तो कभी बड़े  भाई बहनों के साथ मिलकर काम पर निलकने लगा था.  आज इतफ़ाक से वह अपने पिता के साथ था.  कूड़ा बीनते बीनते उसके हाथ एक बड़ा सा कागज़ लगा जिस पर रंगबिरंगी आडी-तिरछी रेखाएं खिंची थी.
'यह क्या है बापू?'
बाप ने एक सरसरी निगाह दौड़ाई, 'नक्शा है.'
'वह क्या होता है?'
'नक़्शे को देख पर यह पता लग जाता है की कौन सी जगह कहाँ पर है.'
'इसमें अपना घर कहाँ पर है?'
बाप समझदार मालूम होता था.  बेटा निराश न हो जाए इसलिए उसने उत्तर दिया,'नक्शा पूरा नहीं हैं न, जो कोना फट गया है उसी हिस्से में शायद हमारा घर है.'
बच्चा कूड़े में और तेज़ी से कुछ ढूँढने लगा.'
 क्या खोज रहे हो?' बाप ने पूछा .
'अपना घर. वो मिल जाये तो फिर पुलिया के नीचे नहीं सोना पड़ेगा न.' 
दोनों अपने काम पर लगे रहे.
रात बच्चा पुलिया के नीचे बैठे बैठे निश्चय कर रहा था की कल वो बड़े ढेर में से नक़्शे का बाकी टुकड़ा ढूंढेगा.

बुधवार, सितंबर 29, 2010

भगत सिंह जन्म दिवस

'सौ सौ पड़ें मुसीबत बेटा उम्र जवान मैं
भगत सिंह कदे जी घबरा जा बंद मकान मैं'

ग्रामीण महिला संतरो ने ग्रामवासियों के सामने मंच पर खड़े होकर यह रागिनी गाई तो पांच छह सौ लोगों की भीड़ वाह वाह कर उठी. मौका था भगत सिंह के जन्म दिन पर तितरम गांव के पुस्तकालय के प्रांगण मैं सत्ताईस और अठाईस सितम्बर की मध्य रात्रि को भगत सिंह के जन्मदिवस के आयोजन का. आठ बजे रात को शुरू हुआ कार्यक्रम खतम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. एक के बाद एक रागनी, भगत सिंह के जीवन को लक्ष्य करते हुए.

रामधारी खटकर और राजेश दलाल की जुगलबंदी ने ऐसा समां बंधा कि दर्शक मंत्रमुग्ध हो कर देर रात तक भगत सिंह के किस्से सुनते रहे. कार्यक्रम में ग्रामीण महिलाओं की विशाल उपस्थिति ने न सिर्फ कलाकारों अपितु आयोजकों को भी हैरानी मैं डाल दिया. अचरज तो तब हुआ जब एक महिला ने उठ कर राजेश को उसकी भ्रूण-हत्या पर लिखी प्रसिद्ध हरियाणवी कविता सुनाने की फरमाइश की.

ओनर-किलिंग और घटते लिंग अनुपात के बीच झूलते हरियाणा में ऐसे कार्यक्रम भी चमकते हैं तारों की तरह और उम्मीद बंधाते हैं.

पंडित लखमीचंद - एक परिचय


आम तौर पर एक धारणा बनी हुई है की हरियाणा में कल्चर के नाम पर सिर्फ एग्रीकल्चर है, लेकिन जो लोग ऐसा सोचते हैं दरअसल वे हरियाणा की समृद्ध सांस्कृतिक, सामाजिक विरासत से परिचित ही नहीं हैं. विभिन्न कालखंडो में हरियाणा एवं हरयाणवी लोगों नें ऐसे ऐसे सांस्कृतिक आयाम स्थापित कियें हैं जिसका कोई सानी नहीं है. जब हम हरियाणा की सांस्कृतिक विरासत की बात करेंगे तो पंडित लखमीचंद का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य है. आज जब संगीत और कला के नाम पर री मिक्स का शोर शराबा सुनाई देता है और रागनियों के नाम पर हिंदी फ़िल्मी गानों की फूहड़ नक़ल तो लखमीचंद बहुत याद आते हैं. आईए हरयाणा के इस शेक्सपियर के बारे में थोड़ा जाने.
पंडित लख्मीचंद का जन्म सोनीपत जिले के गांव जाटी कलां के एक किसान परिवार में हुआ था. क्योंकि परिवार का गुज़ारा ही मुश्किल से होता था इसलिए बालक लखमी को स्कूल भेजने की बजाए घर के पशु चराने का काम सौंप दिया गया. गायें, भैसें चराता ये बालक कुछ न कुछ गाता रहता. साथी ग्वालों से कुछ लोक गीत सुन सुन कर इस बच्चे को भी उनकी कुछ पंक्तियाँ याद हो गई. फिर क्या था - इधर मवेशी चरते और उधर लखमी अपनी तान छेड़ देता. लक्मी की गायन प्रतिभा से प्रभावित हो कर उस ज़माने के भजनी और सांगी उसे अपने साथ ले जाने लगे. घर वाले भी उनके इस शौक से कुछ चिंतित रहने लगे. पर मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की. एक बार मशहूर संगी पंडित दीपचंद का सांग देखने के लिए दस साल कि उम्र में ही वो कई दिन घर से बाहर रहे. इसी तरह शेरी खांडा के निहाल सांगी का सांग देखने गए तो कई दिन बाद घर लौटे. कहने का अभिप्राय ये है कि पूत के पांव पालने में ही नज़र आने लगे थे.

प्रतिभा हो तो कुदरत भी साथ देती है. ऐसा ही कुछ बालक लखमी के साथ हुआ. गांव में कोई शादी थी और उस जमाने के प्रसिद्ध कवि और गायक मान सिंह का उनके गांव में आना हुआ.
रातभर मान सिंह के भजन चलते रहे और बालक लखमी पर जादू सा का असर करते रहे. एकलव्य की इस बालक ने भी मन ही मन गुरु धारण कर लिया. लेकिन मान सिंह द्रोणाचार्य नहीं थे. उन्होंने इस बच्चे की प्रतिभा को पहचान लिया था और संगीत की औपचारिक शिक्षा देने के लिए उन्होंने उसे शिष्य बनाकर गायन कला के पाठ पदाने आरम्भ कर दिए. थोड़े ही समय में बालक लखमी गायन कला में निपुण हो गया.

लखमी गायक तो हो गया लेकिन उसकी प्रतिभा और रचनाशीलता अभी संतुष्ट नहीं हुई थी. उसमे तो कुछ और ही ललक थी. उसे अभिनय भी सीखना था. आज भी अगर कोई बच्चा कहे कि मुझे एक्टिंग सीखनी हैं तो आप जानते हैं कि माँ बाप और समाज की प्रतिक्रिया क्या रहेगी? लेकिन लखमी पर तो धुन सवार थी. उस दौर में भी अभिनय और सांग आदि विधाओं को कोई अच्छी चीज़ नहीं माना जाता था. खैर, अब लखमी हो लिए मेहंदीपुर के श्रीचंद सांगी की सांग मण्डली में. फिर अपनी प्रतिभा को और निखारने के लिए पहुँच गए सोहन कुंडलवाला के पास.

अपनी कला को मांजने के लिए लख्मीचंद बेशक कहीं जाते रहे हों लेकिन वह सच्चे दिल से मान सिंह को ही अपना गुरु मानते रहे क्योंकि इस कला की प्रथमतः बारीकियां उन्होंने उनसे ही सीखी थी. एक बार बरेली के किसी कार्यक्रम में सोहन कुंडल वाला नें मान सिंह के अपमान में कुछ शब्द कह दिए तो स्वाभिमानी लखमीचंद उन्हें नमस्ते कह कर चल दिए. बड़ी मुश्किल से आयोजकों ने उन्हें रोका. महम के सूबेदार शंकर सिंह के काफी आग्रह पर लख्मीचंद कार्यक्रम तो पूरा करने के लिए मान गए लेकिन उनकी गुरु के प्रति श्रद्धा अभेद्य बनी रही . इस बात से बिलबिला कर कुंडल वाला के कुछ चेलों ने लख्मीचंद को धोखे से ज़हर पिला दिया. इलाज़ करने पर उनकी जान तो बच गई पर आवाज बेसुरी हो गई. सरस्वती के साधक को ये कैसे मंजूर होना था. अपने सुर वापस पाने के लिए लखमी चंद रोज गांव के एक सूखे कुवें में उतर जाते और घंटों अभ्यास करते. महीनों तक अभ्यास चलता रहा और लखमी चंद अपनी आवाज को फिर साधने में कामयाब हो गए.

कुंडलवाला का गरूर अभी तक टूटा नहीं था. उसे यकीन ही नहीं था कि लखमी चंद अब गा सकता है. लखमीचंद के गावं मै ही कुंडल वाला ने उन्हें चुनौती दी कि वह उनके बराबर गा कर दिखाए. फिर क्या था - एक सांग में कुंडलवाला ने राजा भोज की भूमिका की और लखमी ने नायिका के रूप में स्त्री पात्र किया. उनके अभिनय एवं संवाद शैली को देख कर दर्शक तो गद्
गद् हुए पर राजा भोज की स्थिति गंगू तेली जैसी हो गई.

तब तक लखमीचंद का डंका चारों और बजने लग गया था. लेकिन ज्ञान अर्जित करने की उनकी पिपासा अभी शांत नहीं हुई थी. वह विद्वानों की संगत करते उनसे तमाम किस्म की चर्चा करते. वेद-शाश्त्र हों या रामायण -महाभारत , गीता हो या रामायण - लखमीचंद चंद ने इन सब ग्रथों को साधुजनो और विद्वानों की संगती में ही जाना समझा. इतना ही प्रयाप्त नहीं था इस महँ कलाकार के लिए. उन्होंने इन महान ग्रंथों के किस्सों को आम लोगों को समझी जाने वाली जबान में फिर से छन्दबद्ध करना शुरू किया और उन्हें सांगो की शक्ल में रूपांतरित करना शुरू किया. एक अनपढ़ गंवार लड़का ये सब कर पाया यह कल्पना के परे की बात लगती है.

आज जब रागनियों के नाम पर अधिकांश अश्लीलता परोसी जा रही है तो लखमीचंद जैसे गायक और कलाकार की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है.उनके प्रमुख सांगो मे हैं: राजा भोज, चंदेर्किरण , हीर-राँझा , चापसिंह, नल-दमयंती, सत्यवान-सावित्री, मीराबाई, पद्मावत. उनके एक प्रसिद्ध सांग हूर मेनका का अंग्रेज़ी अनुवाद हाल ही में लेखक एवं पुलिस अधिकारी राजबीर देसवाल ने किया है. जिसके लिए उन्हें हरियाणा सरकार द्वारा प्रुस्कृत भी किया गया है. आज बहुत आवश्यकता है ऐसे बहुत से प्रयासों की, जिनके माध्यम से हम अपनी नयी पीढ़ी को अपनी विरासत से परिचित करा पायें.

(उपरोक्त लेख डा. पूरणचंद के शोध पर आधारित है.)


अनुवाद दिवस

बहुत कम लोग जानते हैं कि 30 सितम्बर को विश्व अनुवाद दिवस होता है. जिस प्रकार किसी भी भाषा मैं मौलिक लेखन का अपना महत्व है उसी तरह अनुवाद ने भी मानव संस्कृति एवं साहित्य के विकास मैं मह्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. कल्पना कीजिये अगर विश्व के श्रेष्ठतम साहित्य का विभिन्न भाषाओं मैं अनुवाद न हुआ होता तो अलग अलग समाज मात्र कूप मंडूक ही बने रहते और दुनिया के भिन्न भाषा वाले दूसरे समाजों में क्या हो रहा है इस बारे में उन्हें कोई ज्ञान न होता.

भारत में अगर भारतीय साहित्य के पश्चात अगर किसी और साहित्य को सबसे अधिक पढ़ा गया है तो वह रूसी साहित्य है. एक दौर में रूसी साहित्य का हिंदी अनुवाद भारत में खूब बिकता था और पढ़ा जाता था. याद कीजिये रादुगा प्रकाशन की किताबें. गोर्की, तोल्स्तोय दोस्तोवस्की और दूसरे महान रूसी लेखकों को भारत की दो तीन पीढ़ियों में से अधिकांश ने उन्हें हिंदी में ही पढ़ा होगा. इसके अतिरिक्त और भी न जाने विश्व भर के कितने ही लेखकों के हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओँ में अनुवाद उपलब्ध हैं. टैगोर और गाँधी जी के लेखन को विश्व की लगभग सभी भाषाओँ में अनूदित किया गया है. पूरा विश्व इन नामों से परिचित है इसका मुख्य श्रेय अनुवाद को भी जाता है.

अधिकांश लोगों का मानना है कि अनुवाद कला मात्र कोई सौ दो सौ साल पुरानी है लेकिन सच यह है कि अनुवाद कला अत्यंत प्राचीन है ये बात और है कि इसकी लोकप्रियता पिछली दो तीन सदी में बढ़ी. आज तो आलम ये है कि किसी भी प्रतिष्ठित लेखक की पुस्तक एक साथ कई भाषाओं में प्रकाशित होती है और एक ही साथ दुनिया के अलग अलग देशों के अलग अलग अलग भाषा जानने वाले लोगों के बीच पहुँच जाती है.
बाइबल दुनिया की सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली किताबों में से एक है. और बाइबल ही उन विरली पुस्तकों में से एक है जिसका विश्व की हर भाषा में अनुवाद हुआ है. अनुवाद कला का सम्बन्ध भी बाइबल से ही है.

अनुवाद दिवस सेंट जेरोम की याद मनाया जाता है. सेंट जेरोम की वास्तविक जन्मतिथि के बारे में इतिहास में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है पर यह माना जाता है कि उनका जन्म सन 340-42 के आसपास क्रोअशिया के एक छोटे से शहर स्त्रिदों में हुआ था . उनकी मृत्यु की वास्तविक तिथि इतिहास में दर्ज है क्योंकि उन्होंने जीवन भर ऐसे कामों को अंजाम दिया जिसकी नींव पर विश्व साहित्य के विकास की इमारत बुलंद होती चली गई. सेंट जेरोम की मृत्यु 30 सितम्बर 420 को पेलेस्तीन के बेथलेहम नाम के शहर में हुई थी. उन्ही की स्मृति में विश्व भर में अनुवाद दिवस मनाया जाता है. सेंट जेरोम नें ही बाइबल का पहला लेटिन अनुवाद किया और उन्होंने अनुवाद कला पर कई महत्वपूर्ण लेख लिखे.

390 और 405 के बीच, सेंट जेरोम नें 'ओल्ड टेस्टामेंट' का हिब्रु से अनुवाद किया. इस बीच उन्होंने 'बुक्स ऑफ सैमुअल एंड ऑफ किंग्स', और 'न्यू टेस्टामेंट' जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकों के साथ साथ दर्शन एवं रहस्यवाद के विभिन्न ग्रंथों का भी अनुवाद किया एवं समकालीन बाइबल ग्रंथो पर विभिन्न भाषाओँ में टीकाएं लिखी. सेंट जेरोम के बारे में कहा जाता है की उन्होंने अत्यंत तेजी से अनुवाद एवं लेखन कार्य किया क्योंकि वे चाहते थे की अपने जीवन काल में ही वे उपलब्ध सभी ग्रंथो का अनुवाद कर लें अथवा विभिन्न भाषाओँ में अपनी टिप्पणियाँ दर्ज कर दे. इसीलये इतिहासकारों के अनुसार उनके लेखन एवं अनुवादों में कहीं कहीं असमानता भी नज़र आती है. सेंट जेरोम नें भी अपने जीवन के अंतिम वर्षों में लिखा है कि वह कई चीज़ों की और बेहतर व्याख्या कर सकते थे. लेकिन इस से उनके कार्य का महत्व कम नहीं हो जाता. क्योंकि अपनी विरासत में सेंट जेरोम विश्व को ऐसी विधा दे गए जिसने साहित्य के विकास में महत्ती भूमिका निभाई.

हालाँकि अनुवाद दिवस मनाने का चलन बहुत पुराना नहीं है.यद्यपि पहले भी सेंट जेरोम की स्मृति में 30 सितम्बर को कई देशों में कई कार्यक्रम आयोजित् किये जाते थे परन्तु वर्ष 1991 में विश्व के अग्रणी अनुवादकों ने इस दिन को अधिकारिक तौर पर अनुवाद दिवस के मनाने का निर्णय किया. इस दिन कई देशों में अनुवाद सम्बन्धी कई कार्यक्रम, कार्यशालाएं, गोष्टियाँ, सेमीनार इत्यादि आयोजित किये जाते हैं. भारत में भी अनुवादकों द्वारा इस तरह की पहल की आवश्यता है.
कुमार मुकेश