तितरम मोड़ क्या है?

मेरी फ़ोटो
सम्भव(SAMBHAV - Social Action for Mobilisation & Betterment of Human through Audio-Visuals) सामाजिक एवं सांस्कृतिक सरोकारों को समर्पित मंच है. हमारा विश्वास है कि जन-सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर जन-भागीदारी सुनिश्चित करके समाज को आगे ले जाना मुमकिन है.

बुधवार, सितंबर 29, 2010

पंडित लखमीचंद - एक परिचय


आम तौर पर एक धारणा बनी हुई है की हरियाणा में कल्चर के नाम पर सिर्फ एग्रीकल्चर है, लेकिन जो लोग ऐसा सोचते हैं दरअसल वे हरियाणा की समृद्ध सांस्कृतिक, सामाजिक विरासत से परिचित ही नहीं हैं. विभिन्न कालखंडो में हरियाणा एवं हरयाणवी लोगों नें ऐसे ऐसे सांस्कृतिक आयाम स्थापित कियें हैं जिसका कोई सानी नहीं है. जब हम हरियाणा की सांस्कृतिक विरासत की बात करेंगे तो पंडित लखमीचंद का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य है. आज जब संगीत और कला के नाम पर री मिक्स का शोर शराबा सुनाई देता है और रागनियों के नाम पर हिंदी फ़िल्मी गानों की फूहड़ नक़ल तो लखमीचंद बहुत याद आते हैं. आईए हरयाणा के इस शेक्सपियर के बारे में थोड़ा जाने.
पंडित लख्मीचंद का जन्म सोनीपत जिले के गांव जाटी कलां के एक किसान परिवार में हुआ था. क्योंकि परिवार का गुज़ारा ही मुश्किल से होता था इसलिए बालक लखमी को स्कूल भेजने की बजाए घर के पशु चराने का काम सौंप दिया गया. गायें, भैसें चराता ये बालक कुछ न कुछ गाता रहता. साथी ग्वालों से कुछ लोक गीत सुन सुन कर इस बच्चे को भी उनकी कुछ पंक्तियाँ याद हो गई. फिर क्या था - इधर मवेशी चरते और उधर लखमी अपनी तान छेड़ देता. लक्मी की गायन प्रतिभा से प्रभावित हो कर उस ज़माने के भजनी और सांगी उसे अपने साथ ले जाने लगे. घर वाले भी उनके इस शौक से कुछ चिंतित रहने लगे. पर मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की. एक बार मशहूर संगी पंडित दीपचंद का सांग देखने के लिए दस साल कि उम्र में ही वो कई दिन घर से बाहर रहे. इसी तरह शेरी खांडा के निहाल सांगी का सांग देखने गए तो कई दिन बाद घर लौटे. कहने का अभिप्राय ये है कि पूत के पांव पालने में ही नज़र आने लगे थे.

प्रतिभा हो तो कुदरत भी साथ देती है. ऐसा ही कुछ बालक लखमी के साथ हुआ. गांव में कोई शादी थी और उस जमाने के प्रसिद्ध कवि और गायक मान सिंह का उनके गांव में आना हुआ.
रातभर मान सिंह के भजन चलते रहे और बालक लखमी पर जादू सा का असर करते रहे. एकलव्य की इस बालक ने भी मन ही मन गुरु धारण कर लिया. लेकिन मान सिंह द्रोणाचार्य नहीं थे. उन्होंने इस बच्चे की प्रतिभा को पहचान लिया था और संगीत की औपचारिक शिक्षा देने के लिए उन्होंने उसे शिष्य बनाकर गायन कला के पाठ पदाने आरम्भ कर दिए. थोड़े ही समय में बालक लखमी गायन कला में निपुण हो गया.

लखमी गायक तो हो गया लेकिन उसकी प्रतिभा और रचनाशीलता अभी संतुष्ट नहीं हुई थी. उसमे तो कुछ और ही ललक थी. उसे अभिनय भी सीखना था. आज भी अगर कोई बच्चा कहे कि मुझे एक्टिंग सीखनी हैं तो आप जानते हैं कि माँ बाप और समाज की प्रतिक्रिया क्या रहेगी? लेकिन लखमी पर तो धुन सवार थी. उस दौर में भी अभिनय और सांग आदि विधाओं को कोई अच्छी चीज़ नहीं माना जाता था. खैर, अब लखमी हो लिए मेहंदीपुर के श्रीचंद सांगी की सांग मण्डली में. फिर अपनी प्रतिभा को और निखारने के लिए पहुँच गए सोहन कुंडलवाला के पास.

अपनी कला को मांजने के लिए लख्मीचंद बेशक कहीं जाते रहे हों लेकिन वह सच्चे दिल से मान सिंह को ही अपना गुरु मानते रहे क्योंकि इस कला की प्रथमतः बारीकियां उन्होंने उनसे ही सीखी थी. एक बार बरेली के किसी कार्यक्रम में सोहन कुंडल वाला नें मान सिंह के अपमान में कुछ शब्द कह दिए तो स्वाभिमानी लखमीचंद उन्हें नमस्ते कह कर चल दिए. बड़ी मुश्किल से आयोजकों ने उन्हें रोका. महम के सूबेदार शंकर सिंह के काफी आग्रह पर लख्मीचंद कार्यक्रम तो पूरा करने के लिए मान गए लेकिन उनकी गुरु के प्रति श्रद्धा अभेद्य बनी रही . इस बात से बिलबिला कर कुंडल वाला के कुछ चेलों ने लख्मीचंद को धोखे से ज़हर पिला दिया. इलाज़ करने पर उनकी जान तो बच गई पर आवाज बेसुरी हो गई. सरस्वती के साधक को ये कैसे मंजूर होना था. अपने सुर वापस पाने के लिए लखमी चंद रोज गांव के एक सूखे कुवें में उतर जाते और घंटों अभ्यास करते. महीनों तक अभ्यास चलता रहा और लखमी चंद अपनी आवाज को फिर साधने में कामयाब हो गए.

कुंडलवाला का गरूर अभी तक टूटा नहीं था. उसे यकीन ही नहीं था कि लखमी चंद अब गा सकता है. लखमीचंद के गावं मै ही कुंडल वाला ने उन्हें चुनौती दी कि वह उनके बराबर गा कर दिखाए. फिर क्या था - एक सांग में कुंडलवाला ने राजा भोज की भूमिका की और लखमी ने नायिका के रूप में स्त्री पात्र किया. उनके अभिनय एवं संवाद शैली को देख कर दर्शक तो गद्
गद् हुए पर राजा भोज की स्थिति गंगू तेली जैसी हो गई.

तब तक लखमीचंद का डंका चारों और बजने लग गया था. लेकिन ज्ञान अर्जित करने की उनकी पिपासा अभी शांत नहीं हुई थी. वह विद्वानों की संगत करते उनसे तमाम किस्म की चर्चा करते. वेद-शाश्त्र हों या रामायण -महाभारत , गीता हो या रामायण - लखमीचंद चंद ने इन सब ग्रथों को साधुजनो और विद्वानों की संगती में ही जाना समझा. इतना ही प्रयाप्त नहीं था इस महँ कलाकार के लिए. उन्होंने इन महान ग्रंथों के किस्सों को आम लोगों को समझी जाने वाली जबान में फिर से छन्दबद्ध करना शुरू किया और उन्हें सांगो की शक्ल में रूपांतरित करना शुरू किया. एक अनपढ़ गंवार लड़का ये सब कर पाया यह कल्पना के परे की बात लगती है.

आज जब रागनियों के नाम पर अधिकांश अश्लीलता परोसी जा रही है तो लखमीचंद जैसे गायक और कलाकार की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है.उनके प्रमुख सांगो मे हैं: राजा भोज, चंदेर्किरण , हीर-राँझा , चापसिंह, नल-दमयंती, सत्यवान-सावित्री, मीराबाई, पद्मावत. उनके एक प्रसिद्ध सांग हूर मेनका का अंग्रेज़ी अनुवाद हाल ही में लेखक एवं पुलिस अधिकारी राजबीर देसवाल ने किया है. जिसके लिए उन्हें हरियाणा सरकार द्वारा प्रुस्कृत भी किया गया है. आज बहुत आवश्यकता है ऐसे बहुत से प्रयासों की, जिनके माध्यम से हम अपनी नयी पीढ़ी को अपनी विरासत से परिचित करा पायें.

(उपरोक्त लेख डा. पूरणचंद के शोध पर आधारित है.)