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बुधवार, सितंबर 05, 2012

एक हाथी की हत्या (कहानी)-जार्ज ओर्वेल


बर्मा के मौल्में शहर में अधिकांश लोग मुझसे काफी घृणा करते थे. मेरे जीवन में पहली बार ऐसा हुआ था कि शायद मैं  इतना महत्वपूर्ण हो गया था कि मेरे साथ ऐसा होने लगा. मैं वहां उपमंडल निरीक्षक के पद पर नियुक्त था और शहर में यूरोपियन लोगों के प्रति एक तरह की उद्देश्यहीन और क्षुद्र नफरत का सा माहौल थाहालाँकि किसी भी नागरिक की किसी किस्म का दंगा करने की कोई औकात नहीं थी लेकिन यदि कोई यूरोपियन महिला अकेली बाजार चली जाती तो हो सकता था कि कोई उसके कपड़ो पर पान की पीक थूक दे. अगर उनके लिए मुझे किसी ना किसी तरह सताना सुरक्षित होता तो एक पुलिस अधिकारी होने के बावजूद मैं भी उनके निशाने पर जाता. जब एक बार एक फुर्तीले बर्मन ने मुझे फुटबॉल मैदान में अडंगी मारकर गिरा दिया तो रेफरी नेजो खुद भी एक बर्मी था, यह दृश्य देखकर जानबूझकर दूसरी और मुंह फेर लिया. भीड़ ने भी इसका पूरा मजा लिया.  आखिर उन्हें एक गोरे पर हँसने का मौका जो मिला थाऔर ऐसा एक से अधिक बार हुआ. इस तरह की घटना के बाद पीले चेहरे वाले वे लोग मुझे कहीं देखते तो एक सुरक्षित दूरी पर पहुँच जाने के पश्चात उनकी हंसी की आवाज़ अक्सर मेरे कानों में पड़ती. मैं तिलमिलाकर रह जातायुवा बौद्ध भिक्षु तो इस तरह की हरकतों मैं सबसे आगे थेवे हजारों की संख्या में मौजूद थेउनका काम ही बस यही था कि वे सड़क के किनारों  पर खड़े रहते और जब भी किसी गोरे को देखते तो उनपर छींटाकशी करते रहते.
     यह सब बहुत हैरान और परेशान करने वाली बात थी. दरअसल मैं उस समय तक यह सोचने लगा था कि साम्राज्यवाद एक बुरी बात है और मुझे लगाने लगा था कि जितनी जल्दी मैं इस नौकरी से निजात पा लूँ उतना ही बेहतर होगा. मन ही मन और सिद्धांततः मैं बर्मी लोगो के साथ था और उनके उत्पीड़कों यानि अंग्रेजो के विरुद्ध. जहाँ तक नौकरी का सवाल है मैं इससे इतनी घृणा करता था कि मैं शब्दों मैं इसका बयां नहीं कर सकता. ऐसी नौकरी में आपको साम्राज्य का घिनौना चेहरा बहुत नजदीकी से देखने को मिलता है. जेल नामक बदबूदार पिंजरों में बंद बदहाल कैदी, सजायाफ्ता मासूम भूरे चेहरों वाले अपराधी, बांस से धुनें गए लहूलूहान चूतड़-- ये सब मुझे असहनीय अपराधबोध से भर देते. पर मैं ज्यादा कुछ समझ ना पाता. मैं अभी युवा था और मेरी शिक्षा भी बहुत अच्छे तरीके से नहीं हुई थी.  मैं अपने एकांतिक मौन मैं बैठ कर अपनी तकलीफों पर विचार करता जो हर उस अंग्रेज पर थोप दी गई थी जो पूर्व में कार्यरत था. यहाँ तक कि मुझे ये भी नहीं पता था कि धीरे धीरे ब्रिटिश साम्राज्य की मौत हो रही है. और मैं यह भी नहीं जानता था कि एक तरह से यह उससे तो बेहतर ही है कि वे छोटे-छोटे राष्ट्र इसे उखाड़ फेंके जिन पर यह राज करता है. मैं सिर्फ इतना जानता था कि मैं उस साम्राज्य जिसकी मैं सेवा कर रहा  था, के प्रति घृणा और इन बददिमाग लोगों, जिन्होंने मेरी नौकरी को और मुश्किल बना दिया था के प्रति अपने गुस्से के बीच फंसा हुआ था.  एक और मुझे ब्रिटेन की कभी ना खत्म होती दिखती साम्राज्यवादी नीतियों से घृणा होती वहीँ दूसरी और कई बार मुझे लगता कि इन बौद्ध भिक्षुओं के पेट में संगीन घुसेड़ दूँ.  इस तरह की विरोधाभासी भावनाएं साम्राज्यवाद का सामान्य उपोत्पादन होती हैं; किसी भी एंग्लोइंडियन अधिकारी से यही बात बेशक पूछ लेना बशर्ते तुम उसे ड्यूटी के बाद मिल सको.
       एक दिन एक रिहायशी इलाके के पास एक अत्यंत दिलचस्प घटना घटी. यह अपने आप मैं एक छोटी सी घटना थी पर इसी घटना के चलते मुझे साम्राज्यवाद की वास्तविक प्रकृति के बारे में बेहतर तरीके से खुलासा हुआ. इसी घटना से मुझे निरंकुश सरकारों के असली इरादों के बारे में भनक लगी. उस दिन तडके ही एक बर्मी सब-इंस्पेक्टर ने मुझे फोन पर इत्तला दी की शहर के बाजार में एक हाथी मदमस्त हो कर उत्पात मचा रहा है. और उसने मुझसे पूछा कि क्या में आ सकता हूँ और हाथी को ठिकाने लगाने के लिए क्या कुछ कर सकता हूँ. मैं नही जानता था कि में ऐसी स्थिति में क्या कर सकता हूँ पर मैं यह जरूर देखना चाहता था कि आखिर माजरा क्या है.  खैर मैंने एक टट्टू लिया और बाज़ार की ओर चल दिया. मैंने अपने साथ अपनी पुरानी .44 विनचेस्टर राइफल भी ले ली, हालाँकि मै जानता था कि हाथी को मारने के लिए यह पर्याप्त नहीं पर मुझे लगा कि उसकी आवाज डराने के लिए तो काफी ही होगी. बहुत से बर्मी लोगों ने मुझे रास्ते मैं रोक-रोक कर बताया कि आखिर वह हाथी किस किस कदर कहर बरपा रहा है. यह कोई जंगली हाथी नहीं अपितु एक पालतू हाथी था जो आज किसी वजह से मस्त हो गया था.  इसे जंजीरों से बाँध कर रखा गया था. जब हाथी पर मस्ती का दौरा पड़ता है तो महावत उसे जंजीरों से बाँध कर रखते हैं. पिछली रात यह हाथी किसी तरह अपनी जंजीरे तोड़ कर भाग निकला.  इसका महावत ही अकेला ऐसा आदमी था जो इस पर काबू पा सकता था.  रात जब उसे हाथी के भागने की खबर मिली तो वह दौड़ा लेकिन उसने राह गलत पकड़ ली. और इस वक्त वह मौके की जगह से कम से कम बारह घंटे की यात्रा की दूरी पर था.
       और सुबह अचानक हाथी शहर में दिखा.  बर्मी लोगों के पास हथियार नाम की कोई चीज़ नहीं थी और वे इस मुसीबत के सामने बिलकुल असहाय थे.  हाथी अब तक किसी के बांस के झोपड़े को बर्बाद कर चुका था, एक गाय को मार चुका था, फलों की कई दुकानों पर हमला कर उन्हें मटियामेट कर चुका था.  और तो और जब इसका सामना गंदगी वाली मुनिसिपलिटी वाली गाड़ी से हुआ तो इसने उसको उलट-पलट कर रोंद डाला. गनीमत है कि चालक गाड़ी से नीचे कूद गया था.
       बर्मी सब-इंस्पेक्टर और कुछ भारतीय सिपाही उस इलाके मैं मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे जहाँ हाथी को देखा गया था. यह बहुत ही गरीब किस्म का इलाका था. चारों और बांस की झोपड़ियों की भूलभुलैया थी जिन पर फूस और ताड़ के पत्तों की ढलवां छतें बनी थी.  मुझे याद है कि यह बारिश के शुरुआती दिनों की बादलों और उमस से भरी सुबह थी.  हमने लोगों से हाथी के बारे में सवाल करने शुरू किये कि आखिर अब हाथी कहाँ गया.लेकिन हमेशा की तरह हमें कोई सीधी-स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पा रही थी. पूर्व में अक्सर ही ऐसा होता है. जो कहानी दूर से बहुत स्पष्ट लगती है नजदीक यानि घटनास्थल पर आकर सुनो तो बहुत टेढी और घुमावदार होती चली जायेगी. कुछ लोगों का कहना था कि हाथी इस दिशा में गया है, कुछ कह रहे थे कि उस दिशा में गया है. कुछ लोगों का कहना था कि ना उन्होंने कोई हाथी देखा, न सुना.  मुझे उनकी बातें सुनकर यह लगने लगा था कि यह सिर्फ अफवाह और मनघडंत किस्सा है. तभी हम सबने थोड़ी दूरी पर चीखने की आवाजें सुनी. 'भागो, भागो बच्चो, भागो यहाँ से!' यह एक महिला की आवाज थी जो अपने हाथ में एक छड़ी लिए गुस्से से चिल्ला रही थी. और उसके आगे आगे था नंग धडंग बच्चों का हजूम.  और भी कई औरतें नजर आईं.  वे सब भी विस्मय से कुछ ना कुछ चिल्ला रही थी. यकीनन वहां कुछ ऐसा था जिसके बारे में वे सब चाहती थी कि उसे बच्चे ना देख पायें. मैं उस झोपड़ी की ओर गया तो मैंने कीचड़ से सनी एक लाश को वहां पड़े देखा. वह एक भारतीय था, एक अश्वेत द्रविड़ कुली. लाश पर कपड़े न के बराबर थे और साफ़ लग रहा था कि उसकी मौत को कुछ मिनटों से ज्यादा समय नहीं बीता है. लोगों ने बताया कि अचानक झोपड़ियो के एक ओर से हाथी आया और उसने इस आदमी को अपनी सूंड में उठाकर नीचे पटक दिया और फिर अपने पैरों से इसकी पीठ को कुचल दिया. बारिश के दिन थे और जमीन नरम थी. उसकी लाश जमीन में एक फुट धंस गई थी और रास्ते में कई फुट लंबी दरार भी पड़ गई थी. वह जमीन पर पेट के बल लेटा था, उसके हाथ फैले हुए थे और उसका सिर एक तरफ से बुरी तरह कुचला हुआ था. उसका चेहरा कीचड़ से सना था, उसकी आँखें पूरी खुली थी, उसके भिंचे दांत उसके दर्द की कहानी कह रहे थे. ( मुझे यह मत कहना कि मृत अक्सर बहुत शांत प्रतीत होते हैं, मैंने अधिकांश लाशों को शैतान सा भयानक पाया है) उसकी पीठ से उस दैत्याकार जानवर ने खाल को ऐसे अलग कर दिया था जितनी सफाई से खरगोश की खाल को अलग किया जाता है. जैसे ही मैंने उस मरे हुए इंसान को देखा मैंने तुरंत एक अर्दली को नजदीक रहने वाले मित्र के घर से बड़ी राइफल लाने के लिए भेज दिया.  मैंने टट्टू पहले ही वापस भिजवा दिया था. मैं नहीं चाहता था कि हाथी की महक से घबरा और पगलाकर कहीं वह मुझे ही नीचे न पटक दे.

       अर्दली एक राइफल और पांच कारतूस के साथ कुछ ही मिनटों में वापस आया, और इस बीच कुछ बर्मी भी पहुँच गए और उन्होंने हमें बताया कि कोई सौ गज दूर धान के खेतों में हाथी को अभी देखा गया है. जैसे ही मैंने आगे बढ़ना शुरू किया उस इलाके की लगभग सारी आबादी मेरे पीछे-पीछे हो ली. उन्होंने राइफल देख ली थी और वे सब उत्तेजना से चिल्लाने लगे थे कि मैं कुछ ही देर में हाथी को मार गिराने वाला हूँ.  उन्होंने ऐसी रूचि तब नहीं दिखाई थी जब हाथी उनके घरों को रोंद रहा था. पर अब बात कुछ अलग थी, हाथी को गोली जो मारी जानी थी. उनके लिए एक मनोरंजक घटना घटने वाली थी, अंग्रेजों की भीड़ को भी यह इतना ही मनोरंजक लगता पर इस भीड़ को हाथी के मरने के बाद उसका मांस भी चाहिए था. उनकी इच्छा जानकर मैं थोड़ा असहज हो उठा था. मेरा हाथी को मारने का कोई इरादा नहीं था-मैंने राइफल सिर्फ इसलिए मंगवाई थी कि जरूरत पड़ने पर मैं अपना बचाव कर सकूँ. अगर भीड़ पीछे हो तो अपने आपे में रहना हमेशा मुश्किल होता है. मैं पहाड़ी से नीचे की और उतरने लगा. कंधे पर राईफल के साथ मैं जरूर बेवकूफ दिख रहा होऊंगा, मुझे महसूस भी ऐसा ही कुछ हो रह था और मेरे पीछे बढ़ती जा रही सेना मेरे साथ कदमताल कर रही थी.  तलहटी पर जाने के बाद जहाँ झोपडियां खत्म हो जाती हैं, वहां एक पक्की सड़क थी. उस सड़क के किनारे धान के खेत थे. हालांकि अभी धान बोया नहीं गया था. बारिश के कारण जमीन दलदली हो गई थी और उस पर लंबी लंबी घास उग आयी थी. हाथी घास खाने में मग्न था.

        मैं सड़क पर रुक गया. जैसे ही मैंने हाथी को देखा तो मैं पूरी तरह निश्चित था कि मुझे इसे मारना नहीं चाहिए. किसी कामगार हाथी को यूँ मार गिराना एक गंभीर मसला है. ऐसा करना किसी बड़ी और कीमती मशीनरी को नष्ट करने के बराबर है- और जब तक ऐसा करना बेहद जरूरी न हो किसी को भी जहाँ तक संभव हो ऐसा नहीं करना चाहिए . थोड़ी ही दूरी पर हाथी शांति से अपना पेट भरने मैं लगा था. वह अब किसी पालतू और शरीफ गाय की तरह लग रहा था. मुझे लगा कि अब इसकी मस्ती उतर गई है और अब यह सिर्फ आराम से इधर उधर टहलेगा जब तक कि इसका महावत इसको आकर ले नहीं जाता. और किसी भी सूरत मैंने उसे मारने के बारे में तो बिलकुल ही नहीं सोचा था..  मैंने फैसला किया कि मै थोड़ी देर उसे देखूंगा कि कहीं फिर से वह बावला न हो जाए, उसके बाद घर लौटूंगा.

       उसी क्षण मैंने मुड़कर उस भीड़ को देखा जो लगातार मेरा पीछा कर रही थी. यह एक विशाल भीड़ थी. कम से कम दो हजार लोग थे जो हर पल बढते ही जा रहे थे. भीड़ से दोनों तरफ क रास्ता अवरुद्ध हो गया था. मैंने चीथड़े पहने पीले चेहरों वाले इंसानों के समंदर की और देखा. उनके चेहरों पर मनोरंजन के भाव थे, एक हाथी को गोली जो मारी जाने वाली थी. वे मुझे यूँ देख रहे थे मानो मैं कोई जादूगर हूँ और अभी कोई करामात दिखाने वाला हूँ. वे मुझे पसंद नहीं करते थे पर मेरे हाथ मैं राईफल होने के कारण मैं दर्शनीय हो गया था. और एकाएक मुझे लगा कि मुझे हाथी को मारना ही चाहिए. तमाम लोग ऐसा ही चाहते हैं और मुझे भी ऐसा ही करना चाहिए. दो हज़ार इच्छाएं मुझे आगे की और धकेल रहीं थी.  मेरा स्वयं पर नियंत्रण नहीं रह गया था. उसी क्षण मुझे एक श्वेत व्यक्ति के खोखलेपन और पूर्व में उसके प्रभुत्व की निरर्थकता समझ में आयी कि कैसे वह तब-तब अपनी ही स्वतंत्रता को नष्ट करता है जब-जब वह निरंकुश होता है. वह बस एक साहब की नकली और बनावटी छविभर होता है. उसके शासन की मुख्य शर्त ही यही है कि वह देसी लोगों को प्रभावित करने में ही अपनी जिंदगी लगा दे और हर संकट की घड़ी में उसे वही करना होगा जो स्थानीय लोग चाहते हैं. वह चेहरे पर एक मुखौटा धारण करता है और अपने चेहरे को मुखौटे के अनुकूल बनाता है.  मुझे हाथी को मारना ही होगा. जब मैंने राइफल मंगवाई उसी क्षण मेरी यही नियति हो गई थी और मैं हाथी को मारने के लिए प्रतिबद्ध हो गया था . एक साहब को साहब की तरह ही पेश आना चाहिए. उसे दृढ़ता का परिचय देते रहना चाहिए. साहब को अपने मनमस्तिष्क के बारे में ज्ञान होना चाहिए और उसे निश्चित कार्यों को अंजाम देना चाहिए.  हाथ में राइफल लिए मैं आगे बढ़ रहा था और मेरे पीछे-पीछे बढ़ रहा था दो हजार लोगों का जनसमूह - ऐसे मैं पीछे हटना, कुछ न करना - नहीं यह असंभव है ! भीड़ मुझ पर हँसेगी. और पूर्व में मेरा सारा जीवन, हर श्वेत व्यक्ति का जीवन सिर्फ एक संघर्ष पर टिका है कि कोई हम पर हँसने की वजह न ढूंढ पाए.


       लेकिन मैं हाथी गोली नहीं मारना चाहता था. मैंने देखा कि कैसे वह अपनी सूंड में हवा भरकर घुटनों तक लंबी घास को हिला रहा था.  मुझे लगा कि उसे गोली मारना हत्या ही कही जायेगी. उस उम्र में जानवरों को मारने के मामले में मैं धर्मभीरू तो नहीं था लेकिन न तो मैंने कभी किसी हाथी को मारा था न ही मारना चाहता था. (पता नहीं क्यों मुझे बड़े जानवरों को मारना और बदतर प्रतीत होता) इसके अतिरिक्त उस जानवर के मालिक के बारे में भी विचार करना जरूरी था. एक जिन्दा हाथी की कीमत कम से कम सौ पाउंड तो जरूर होगी, पर मरा हुआ हाथी - हाथीदांत के अलावा उसमे बचेगा ही क्या यानि शायद सिर्फ पांच पाउंड. पर मुझे जल्दी ही कुछ करना था. मैं कुछ अनुभवी दिखने वाले बर्मी लोगों की ओर मुखातिब हुआ और उनसे पूछा कि थोड़ी देर पहले तक हाथी कैसा व्यवहार कर रहा था. सभी ने एक ही बात दोहराई कि उसे अकेला छोड़ दो तो वह बिल्कुल शांत है लेकिन उसके निकट जाने की कोशिश करते ही वह आक्रामक हो सकता है. 

       मुझे अब बिल्कुल स्पष्ट था कि मुझे क्या करना है. मुझे और नजदीक जाना होगा यानि हाथी से पच्चीस-तीस गज की दूरी पर. और वहां पहुँच कर मुझे उसके व्यवहार को जांचना पड़ेगा. अगर वह आक्रामक होगा तो मैं गोली चला दूंगा पर अगर वह शांत रहा तो यही बेहतर होगा कि उसे यहीं अकेला छोड़ दिया जाए जब तक महावत नहीं आ जाता. पर मैं यह भी जानता था कि मैं ऐसा कुछ नहीं करने वाला हूँ.  मैं कोई निशानेबाज नहीं था और जमीन इतनी नरम थी कि उस पर चलते हुए हर कदम दलदल मैं धंसता सा प्रतीत होता था. अगर मेरा निशाना चूक गया और हाथी ने हमला कर दिया तो..? कम से कम मेरे पास इतना तो मौका होना ही चाहिए की मैं एक मेंढक की तरह कूद कर किसी रोलर के नीचे कुचले जाने से अपना बचाव कर सकूँ. लेकिन तब भी मुझे अपनी खाल बचाने की कम फ़िक्र थी और अपने पीछे खड़ी भीड़ का ख्याल मुझे ज्यादा आ रहा था.  उस पल जब सारी भीड़ की  निगाहें मुझ पर गड़ी थी मैं सामान्य अर्थों में उतना भयभीत नहीं था जितना मैं अकेले होने की स्थिति मैं होता. एक श्वेत आदमी को देसी लोगों के सामने भयभीत प्रतीत नहीं होना चाहिए...इसलिए सामान्य तौर पर वह भयभीत नहीं होता. एक ही ख्याल जो बार-बार मेरे दिमाग में आ रहा था वह यही था कि अगर कुछ गलत हो गया तो ये दो हजार बर्मी लोग मेरे बखिए उधेड़ देंगे और मेरा कुछ वैसा ही हाल करेंगे जो इस हाथी ने उस भारतीय कुली का किया था. और ऐसा हो गया तो बहुत सम्भावना है कि उनमें से कुछ लोग हँसे भी. नहीं. ऐसा नहीं होगा.
       सिर्फ एक ही विकल्प था. मैं राइफल की मेगजीन में कारतूस भरकर बेहतर निशाना पाने के लिए सड़क पर लेट गया.. भीड़ जहाँ की तहां जम गई थी.  असंख्य गलों से गहरी धीमी और खुशी भरी कुछ वैसी ही आह निकली, जैसे आखिरकार नाटक का पर्दा उठने पर निकलती है.  आखिरकार उनका मनोरंजन जो होने वाला था. यह बेहद उत्तम दर्जे की जर्मन राइफल थी. उस वक्त मुझे नहीं पता था कि हाथी को मारने के लिए उसके दोनों कानों के बीच में स्थित एक काल्पनिक दंड को छेदना होता है. क्योंकि हाथी की बगल दिखाई दे रही थी मुझे सीधे उसके कान के छिद्र को निशाना बनाना चाहिए था पर वास्तव में मैंने यह सोच कर कि इसका मस्तिष्क कुछ आगे होगा मैंने कान से कुछ इंच दूर निशाना साधा.
       जब मैंने घोड़ा दबाया तो ना ही मैंने किसी धमाके की आवाज सुनी और न ही मेरे कंधे पर कोई झटका लगा - गोली निशाने को बेध दे तो ऐसा ही होता है - पर मेरे कानों में भीड़ की आसमान चीरती गर्जना अवश्य पहुँची. समय के उस अल्प अंश ने हाथी पर एक भयानक एवं रहस्यमय परिवर्तन बरपा दिया था. ना तो उसके शरीर में कोई तूफ़ान मचा और ना ही वह तुरंत गिरा पर उसके शरीर का जैसे रोआं-रोआं परिवर्तित हो गया था. क्षण के उस छोटे से हिस्से ने उसे जख्मी कर दिया और वह सिकुड़कर जैसे बहुत बूढ़ा हो गया हो और गोली के मर्मान्तक प्रहार से जैसे उसके शरीर को लकवा मार गया हो . आखिरकार, एक बहुत लंबे से लगने वाले अंतराल-जो मुश्किल से पांच सेकंड का होगा, के बाद उसके दुर्बल घुटने एक और लुढक गए. उसके मुंह से लार जैसा कुछ टपकने लगा था. यूँ लगा जैसे एकाएक उसने एक लंबा बुढापा तय कर लिया हो. वह अचानक अत्यंत बूढा लगने लगा. मैंने उसी जगह एक और गोली मारी.  दूसरी गोली लगने पर वह गिरा नहीं अपितु झुके सिर और लड़खड़ाती टांगो के साथ उसने एक बार फिर अपने पैरों पर खड़े होने की एक कमज़ोर कोशिश की.  मैंने तीसरी गोली भी दाग दी. यह गोली निर्णायक थी. इस गोली के प्रहार ने उसके शरीर की तमाम ताकत को निचोड़ लिया और उसकी टाँगे बेजान हो गई. गिरते हुए यूँ लगा मानो वह फिर खड़ा हो रहा हो, उसकी टाँगे कुछ इस तरह से मुड़ी जैसे कोई विशाल चट्टान एकाएक उछली हो.  उसकी सूंड पेड़ की तरह आकाश की और तन गई और उसने पहली और आखिरी बार एक भयानक और पाशविक गर्जना की. फिर वह तेजी से मेरी और पेट कर के  धरती पर यूँ गिरा कि लगा जैसे भूचाल आया हो.
       मैं उठा. बर्मी लोग मुझे पीछे छोड़ हाथी की और दौड़ लिए. यह अब तय था कि हाथी अब कभी नहीं उठेगा पर वह अभी मरा नहीं था. वह बहुत लंबी-लंबी साँसे ले रहा था. विशाल स्तूप सी उसकी देह दर्द से कभी ऊपर तो कभी नीचे हो रही थी. उसका मुंह पूरा खुला था-इतना कि में उसके गुलाबी गले के काफी नीचे तक देख सकता था. मैं काफी देर तक उसके मरने की प्रतीक्षा करता रहा पर उसकी साँसे कमजोर होने को ही नहीं आ रही थी.  आखिरकार मैंने बची हुई दो गोलियां भी उसके शरीर के उस हिस्से को निशाना बनाकर चला दी जहाँ पर मेरे मुताबिक उसका दिल होना चाहिए था. उसके शरीर से खून के फव्वारे छूट रहे थे पर वह मरा नहीं था.  इन दो गोलियों से उसके शरीर में भी कोई अतिरिक्त हरकत नहीं हुई.  बिना किसी अंतराल के उसकी पीड़ापूर्ण साँसे चलती जा रहीं थी. वह धीरे-धीरे पर अत्यंत पीड़ा से मृत्यु की और प्रस्थान कर रहा था, वह मुझसे दूर किसी ऐसी दुनिया में पहुँच चुका था जहाँ गोली भी अब उसे और नुकसान नहीं पहुंचा सकती थी.  मुझे लगा की मुझे इस भयानक आवाज से मुक्ति लेनी चाहिए. यह विशाल जानवर इतना अशक्त था कि हिलडुल भी नहीं सकता था और  इतना ही शक्तिहीन कि मर भी नहीं पा रहा था. उसे इस अवस्था में देखना भी उतना उतना ही पीड़ादायी था जितना उसे इस अवस्था से मुक्त ना कर पाना.  मैंने अपनी छोटी रायफल से उसके दिल और उसकी गर्दन के निचले हिस्से पर एक के बाद एक कई गोलियाँ चलाईं.  लेकिन उन गोलियों का शायद उस पर कोई असर नहीं हुआ. उसकी साँसे घड़ी की सुईयों की तरह टिक-टिक करती रही.
       मैं ज्यादा देर तक इसे बर्दाश्त नहीं कर पाया और वहां से चला गया. बाद में मुझे पता लगा कि हाथी को मरने में आधा घंटा और लगा. मेरे जाने से पहले ही बर्मी लोग पत्तल और टोकरियाँ लाने लगे थे.  मुझे बताया गया की दोपहर होते-होते हाथी का पूरा शरीर उधेड़ा जा चुका था और वहां सिर्फ हड्डियां ही बचीं थी.
       बाद में, ज़ाहिर है, हाथी की हत्या के बारे में अंतहीन चर्चाएँ चलती रहीं. मालिक गुस्से से पागल हो रहा था, लेकिन वह एक बेचारा भारतीय था, वह कर ही क्या सकता था. इसके अलावा, कानूनी तौर पर मैंने सही काम किया था. अगर मालिक अपने जानवर को नियंत्रित करने में असफल रहता है तो पागल कुत्ते की तरह पागल हाथी को मार देना भी जायज है. यूरोपियन लोगों की राय भिन्न-भिन्न थी. बूढ़े लोगों ने कहा कि मैंने सही किया , युवा गोरों का ख्याल था कि एक हाथी को सिर्फ इसलिए मार देना कि उसने एक कुली को कुचल दिया है बेहद शर्म की बात है क्योंकि एक हाथी किसी कुली से हर मायने में ज्यादा उपयोगी है.  बाद में मुझे एक तरह से कुली कि मौत पर खुशी ही हुई क्योंकि इससे मुझे हाथी को मारने की वैध वजह मिल गई थी और मैं अपने कृत्य को ठीक ठहरा सकता था. मैं अक्सर इस बात को सोच कर हैरान होता हूँ कि क्या किसी को भी इस बात की भनक लगी कि मैंने यानि एक गोरे ने सिर्फ इसलिए ऐसा किया ताकि मैं देसी लोगों की उस भीड़ के सामने बेवक़ूफ़ न साबित हो जाऊं. 
                              अनुवाद -कुमार मुकेश